Thursday, January 6, 2011

सच बोलिए खुद से, कहीं और कुछ नहीं रखा

सच बोलिए खुद से, कहीं और कुछ नहीं रखा
गर भागे ही बस जायेंगे
यकीन मानिये
थक जायेंगे

मुझे टूटा हुआ कहकर
खुद को छलावा देंगे यह कब तक
यह रास्ता ठीक नहीं है
यह मंजिल बहुत मुश्किल है...

कहाँ जाना चाहेंगे?
अधूरे क्या ही पाएंगे
रो लीजिये रुक कर
ज़रा सा संभल जायेंगे

नहीं इतने बुरे आँसूं
अंधेरा बस डराता है
आँखें खोल के बैठें
कुछ कुछ नज़र आता है

करने दीजिये खुद को खुद से सारी बातें वह
जो सुन के सांस चढ़ती है
जहाँ दिल बैठा जाता है
सुनाई देने लगता है
कुछ कुछ नज़र आता है
थकन फिर मिटने लगती है
लड़ाई असली दिखती है
वजह हो जाती है जीने की कुछ पक्की
कहीं कुछ भी छिपा नहीं
जो आईने में है सच है वह
मैं सच हूँ
और कभी भी यह
लड़ाई छोड़ी नहीं मैंने
मुझे अब हारने से
नजरो में दुनिया की
आपकी
डर नहीं लगता
मैं सच हूँ
और कभी भी यह
लड़ाई छोड़ी नहीं मैंने

सच बोलिए खुद से, कहीं और कुछ नहीं रखा
कहाँ ले जाएगा रास्ता
यह पता तो नहीं मुझे
यकीं यह है पर लेकिन
मैं सच हूँ, यह रास्ता सच है
जो कहता है सुन लीजिये
सिखाता है तो झुका के सर
मान जाईये, मत भागिए

सच बोलिए खुद से, कहीं और कुछ नहीं रखा
सच बोलिए खुद से, कहीं और कुछ नहीं रखा .....

लिखो कोई, गीत नया

लिखो कोई, गीत नया
फिर हो सुबह, और रौशनी
खुद को कहो, मैं हूँ यहाँ
मैं हूँ यहाँ तो, क्या है कमी?

कितने वादे, खो गए हैं
और फिर लव्जों का इंतज़ार
जाने कहाँ तक दूंदते जाएँ
आँखें, बेक़रार

खुद से कोई, वादा करो
तुमको नभाना आता तो है
कोई नहीं तो फिर क्या हुआ
मैं हूँ यहाँ तो, क्या है कमी?

भागती सी दुनिया में, सामना करते हुए
थी तो खड़ी और हूँ भी खड़ी
यह की नज़र आऊँ मैं किसी और को
ऐसी कोई बंदिश तो कभी भी नहीं ही थी

खुद से कहो, कोई तो है
जिसको पता है, ठीक है सब
खुद को कहो यह बारिश यूँ है,
फसलें खिलें मन उपजाऊ हो

यूँ रूठी रूठी तो न ही रहो
खुद से कई सारी बातें करो
खुद को कहो, मैं हूँ यहाँ
मैं हूँ यहाँ तो, क्या है कमी?

लिखो कोई, गीत नया
लिखो कोई, गीत नया

Monday, January 3, 2011

रात के एक बजे

रात के एक बजे जब यह पता हो की सुबह
६ बजे होना ज़रूरी है
क्यों ज़रूरी है यह लिखना की 'आसान तो कुछ भी नहीं'
आज हिम्मत नहीं है, कल आ जाएगी
कल आएगी और परसों निकल जाएगी
और अगले दिन कुछ और कहानी होगी
खुद को कौनसी तरफ की बातें सुनाऊँ?
पता तो है
इस ओर यूँ खेलते हैं और उस ओर यूँ खेलते हैं
इन सब खेलों के बाहर रह कर
जैसे खुद की बनायीं कोई कठपुतली हूँ
तमाशा और तमाशबीन
वह जो डूब गया वह भी
और जो खड़ा रह वह भी
गोल गोल घूम के शब्द थक जा रहें हैं
अभी बस ४ मिनट पहले कहा था
कुछ भी आसान नहीं, फिर क्या हुआ?

छोड़ दो न अब
जाने भी दो.

उसने लिखा.

उसने लिखा
अब प्यार करना इसीलिए मुश्किल है
की पूरी ज़िन्दगी की कहानी अब फिर से कोई कैसे बताएगा....
और फिर भी
कितने लोग हैं
जो बस येही अहसास जीना चाहते हैं
एक और मौका
की फिर सुनाएँ
एक बार फिर
जी पायें
की रोज़ रोज़ में जिंदा नहीं लगता

हाँ रोज़ रोज़ में जिंदा लगना तो अकसर भूल जाता है
मगर अब कहानिया
और प्यार
रहने दो
hot water bottle किसी दिन ठंडी और कभी मन मर्ज़ी गरम नहीं होती
भरोसे नहीं तोडती
और क्या चाहिए था?
एक गर्मास भरी रजाई बस?
है तो सही ....

उसने लिखा.

अनगिनत

कभी सवाल रुक भी तो जाते होंगे
अनगिनत अटके हुए अहसास किसी लहर के साथ धुल के कभी
बह जाते होंगे शायद

क्या किया करते हैं?
क्या किनारों पे खड़े होके कभी
लहरों का इंतज़ार करते हैं?
या डूबने की सोचे बिना कूद पड़ते हैं पानी में
कि तैरना वर्ना आएगा कैसे?
या फिर डूब कर फिर किनारों पर
या फिर डूब कर फिर - पानी में?
क्या? कब तक?
कहाँ गयी वह लहर
अब कब लौटेगी?
मैं कौन हूँ अब?
किसी किसी दिन सब समझ आता है
और कभी, कुछ भी नहीं
एक वह है जो मुस्कुरा के लहरों को यूँ देखती है
जैसे सारी सृष्टि की रचना समझ आती हो उसे
और एक वह है
जिसके सवाल ही खत्म नहीं होते
और इंतज़ार चला जाता है
चला जाता है...अंतहीन

अनगिनत अटके हुए अहसास किसी लहर के साथ धुल के कभी
बह जाते होंगे शायद....

Monday, November 22, 2010

The Bitch

There was a bitch in my neighbourhood
small, white with patches of black
or black with patches of white
or something like that.
Small and angry -
And she’d long been
for as long as I have seen…
small, and angry and perhaps angry at being small.
A year ago, she had puppies.
And I heard that people took them away -
A month or so back
she had puppies again.
My 2 year old niece
used to call them ‘goggies’
and though she was scared to touch them,
(their mother now, doubly protective and
resorting to biting if barking didn’t work -
and ‘we’ – passing our fears on to a 2 year old…)
She went to see them
12 times a day
everyday
day-after-day
‘Goggies’, she’d say.
A car ran over one pup the day before
and yesterday ‘they’ put the rest
in a gunny sack
and went and left them
somewhere.
The mother - bit a few residents after that.
Today, they hit her head with a stick
and put her in a gunny sack
and took her away too.
I do not know
what ‘away’ means.
And I am sure
I do not wish to tell my niece
the possibilities,
and I do not wish to tell her
fairytales either.
And I do not wish to tell myself
stories from ‘karma’ and ‘destiny’
or give myself explanations.
I cannot.
I am tired of explanations
for everything and then trying, struggling, to live on,
to live on –
I am sitting
and absorbing
the anger
of being.
It is what it is.

Friday, August 20, 2010

do ashes belong more than a pheonix does?

do ashes belong more than a pheonix does?
and if i were to turn to ash
at least i would be remembered...
significant, even if only in memory -
in memory you'd even depend on me i think...
...and be scared perhaps to lose
and hold on stronger, not for m - but your own self -
being ash - would be nice...

there was this path that we lost each other on
and have now lost the path
i wonder sometimes if we should have thrown pebbles
to trace ourselves back
to wherever we began
and then i wonder if you
will find another path
that twists and turns but returns
to me
and i tell myself
don't wait
don't wait
don't wait, don't wait, don't wait,

but if i found life again
will you fly with me?

and this question means nothing
for if i find life again
you would be flying with me
how else would i be alive?
how else - could i - be alive?