Monday, April 19, 2010

थक गयी हूँ...........

ऐसा लगता है शब्द बंध गए हैं
मैं अब कुछ कह नहीं पाउंगी जैसे
मेरे चुप पड़ जाने से क्या कुछ कहोगे तुम
क्या यह अहसास भर होगा की चुप हूँ मैं?

मैं नहीं जानती की अब किसपर विश्वास है मुझे
और मैं दुनिया की नहीं कह रही
खुद की बात कर रही हूँ
मैं खुद से थक गयी हूँ
और खुद से थक के - तुमसे
कहीं दूर चली जाना चाहती हूँ
क्योंकि जाने अनजाने, मानते, न भी मानते हुए
उम्मीद तो तुमसे ही बंधी है न?

प्यार बस प्यार क्यों नहीं हो सकता?
सच्चाई की ज़मीन पे नापा जाये ज़रूरी क्यों है?
और यह सच्चाई होती क्या है?
आज भर की लडाई तो नहीं ही है
कितने जनम और लड़ना होगा?
मैं थक गयी हूँ...

यकीं मनो तो खफा हूँ तुमसे आज
और इसमें हक कुछ नहीं कर सकता
बस यह होगा की तुम्हे बताया नहीं जायेगा
पर कायनात को पता है
रात को पता है
किसी दिशा तुम्हे पता लग ही जायेगा

और अगर एक आज मैं विश्वास करना छोड़ दूं
कल तक कायनात ख़तम हो जाएगी
मैं आखिरी हूँ जिससे विश्वास था
और अब शायद नहीं होगा...

जाओ
कुछ मत कहो..
और मैं लिखना छोड़ देती हूँ
वैसे भी -

थक गयी हूँ...........

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