Wednesday, March 24, 2010

After-day-after-day-after-day

Am I leaving the world I know
Am I one with the unknown
Am I lost and if so?
Will I ever be found again?

What happened to that sparkle of light?
What happened to the good fight?
Why does life feel 'day-after-day-after-day'
after-day-after-day-after-day...

There is darkness for all the light
And yet if I tried to sleep
It wouldn't be dark enough somehow
There would be no respite...

Words fail me and all I feel
All I feel is as hollow as words
What will survival mean here?
Who will I become?

Am I leaving the world I know
Am I one with the unknown
Am I lost and if so?
Will I ever be found again?

Why does life feel 'day-after-day-after-day'
after-day-after-day-after-day...

Sunday, March 21, 2010

The same universe

(Somewhere)
It is peaceful.
You and I are a part of the same universe and merge in the same universe
You and I are therefore not separate.
I do not need to reach out to you and you do not need to find me.
We exist in the same being,
take the same breath
breathe the same life.

Somewhere there is the feeling of a twinge,
a sudden sharp pain, except, that it is neither sudden nor sharp.
I acknowledge it, but I cannot assign meaning to it.
I realize it is the pain of stepping 'out'
of the collective consciousness.
It is the pain of 'need' and 'want' and 'do not have'
It is the pain of 'cannot love' or 'cannot be loved' or both

(Inside, it was just love -
You and I were a part of the same universe
and merged in the same universe.)

मुझसे लकीर नहीं बन रही

यह क्या जी रही हूँ मैं?

एक ख्याल के सच होने के लिए
लड़ते लड़ते थक गयी थी
सोच रही थी बस अब थकान ही है
लडाई ख़त्म हो चली है
कि मुझमे लड़ने की,
विश्वास करने की, और प्यार..
क्षमता ख़त्म हो चली है

यह कहाँ से आ गए तुम?

मैं परियों में और जादू में विश्वास करती हूँ
महसूस होती है मुझे जमीन, आसमान, हवा, बारिश और धड़कने
गानों में, शब्दों में, और दुनिया बदल जाने में
दुनिया बदल पाने में भी, विश्वास है मुझे
टूटता बिखरता सा दीखता है अभी लेकिन
इस विश्वास को सालों जिया है मैंने

मगर तुम?

आसमान में घुमते किसी गृह से प्यार हो गया है मुझे
और मेरे पास कोई अंतरिक्ष यान नहीं
वैसा वाला तो शायाद बना भी नहीं
क्या करूं मगर?
तुम्हे देखते, महसूस करते, जीते हुए,
मुझे याद ही नहीं रहता की तुम
आसमान में घूमता कोई गृह हो, या उससे भी दूर कोई तारा
और मैं पृथ्वी पर बंधी इंसान भर हूँ
तुम कभी अपना यान लेकर यहाँ पहुंचे भी
तो अनगिनत चहरों में मेरा चहरा पहचानोगे कैसे?
ढूँढोगे कैसे मुझे?

विश्वास?
अब से पहले इतना मुश्किल नहीं था
परियों में और जादू में, जमीन, आसमान, हवा, बारिश और धडकनों में
गानों में, शब्दों में, और दुनिया बदल जाने में
दुनिया बदल पाने में
विश्वास
इतना मुश्किल नहीं था...

मैं जानती हूँ की बस सिर्फ केवल विश्वास की सुनहरा धागा पकड़ कर
तुम मुझ तक पहुच सकते हो
तुम जब आओगे, तुम्हारी नज़रें बस यह एक पतली सी डोर ढूँढ रही होगी
आसमान में खिंची यह एक लकीर

और मुझसे यह लकीर ही नहीं बन रही
और मुझसे यह लकीर ही नहीं बन रही....

Saturday, March 20, 2010

इंतज़ार

कभी करते हुए इंतज़ार तुम्हारा अगर
मैं थक के बैठ जाऊं कहीं
तुम्हे लगे, अब मैं
तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर रही

कुछ बात न करूं तुमसे,
कुछ न कहने को हो न सुनने को
करोड़ों शब्दों की बकबक के बाद
एक दम ख़ामोशी मिले

अगर तुम्हे लगे - अजीब सा
जैसे कभी वक़्त बीत जाता है

याद करना जनम दर जनम सदी दर सदी
मैं बस प्यार किया है तुमसे, और इंतज़ार
अब आओगे, अब आओगे, अब आओगे...

मेरे शब्द तो कहीं चार जनम पहले ही बीत गए
और कुछ सोल्हा जन्मों से थकी हूँ
पिछले सात जन्मों से हारी हुई हूँ
उनमे से तीन में बडबडाती रही
और चार, चुप पड़ गयी

तुम्हे लग रहा है मुझे इंतज़ार नहीं, प्यार नहीं?
शायद जीता जगता इंसान ही नहीं वहां, जहाँ मैं थी

छुओ उस पत्थर को, थामे रहो थोड़ी सी देर
कुछ गर्मास मिलेगी तो पिघल जायेगा
मैं बस इस उम्मीद पे जिंदा हूँ
तुम आओगे, फिर से जीना भी आ जायेगा |

Thursday, March 18, 2010

ओडोमोस

आधी रात के बाद
कंप्यूटर के आगे बैठ कर सोच रही हूँ
ओडोमोस की ट्यूब क्या हुई?
तलवे के नीचे और कपड़ों के अंदर, घुटनों और
उँगलियों के बीचों बीच
ओडोमोस लगा लेने भर से अक्सर खुजली मिट जाती है
ज़िन्दगी के quick fix solutions में से एक

कुछ और भी ऐसे मरहम चाहिए
कुछ और भी ऐसे मरहम चाहिए..

कहाँ?

अनजानी उमीदों पे खड़ा सफ़र,
खड़ा है रूककर?
या चलता जा रहा है?
मैं कहाँ जा रही हूँ?
या खड़ी हूँ?
कहाँ?

सवाल कुछ ऐसे हैं
क्या मैं पानी पे चल पाउंगी?
क्या गिरते गिरते गिरना भूल कर कभी
उड़ने लग जाउंगी?
क्या तुम्हे मेरा अहसास भर भी है?
हो तो क्या? और न हो तो क्या?
क्या मैं पानी पे चल पाउंगी?
क्या गिरते गिरते गिरना भूल कर कभी
उड़ने लग जाउंगी?

Saturday, March 13, 2010

रेत का दाना

ज़िन्दगी और मौत - कभी सोचो
खाली पलों को
किनारे पे खड़े हो कर देखो
बह रही है नदी..
ज़िन्दगी

कभी खाली पलों में
भरा होता है इतना
कि लगता है भर के लम्हों को कुछ मन
खाली हो
लोगों से भरे कमरे अच्छे लगते हैं - और शांत
और खामोशी का शोर सहा नहीं जाता
ख्यालों कि भीड़ आती है लेकिन
कोई एक जो बात करे खुद से
बस वह ख्याल नहीं आता

हमेशा बह के पहुँचो या तैर के,
यह ज़रूरी नहीं है
कभी किनारों पे खड़े होकर
एक टक एक जगह
ज़िन्दगी
बह रही है

तुम्हे तो पता है यह
सांस लो
खुशबू है
आँखें बंद करो
रेत का हर दाना छूने लायक है, जीने लायक है...
क्या पता वह खाली या भरा लम्हा जो आज समझ नहीं आ रहा
कल याद आये...

Monday, March 8, 2010

१४० अक्षरों का रिश्ता..

सोचो अनजाने रिश्ते
अनजान लोगों के बीच बंधे कुछ शब्द
और तरसता हुआ कोई अहसास
अपनेपन की गुंजाईश है भी या नहीं
क्या हम दोस्त हैं?
और नहीं तो क्या अजीब सा है यह, जो भी है?

तुम मुझे दोस्त ही लगते हो
तुम मुझे जानते तक नहीं!

मेरा दिन तुम्हारे लिखे
१४० अक्षर ढूँढता है
नामों की अनगिनत भीड़ मे क्या तुम
पहचानते हो मेरा नाम तक ?

१४० अक्षर...
तम्हारी फ़िक्र होती है
तुम्हारा चहरा पढ़ती हूँ
और तुम्हारे शब्दों में ढूँढती हूँ कभी
तुम्हारे अहसास
वह जो कह रहे हो
और वह, जो नहीं...

कोई ज़रुरत नहीं है मुझे यह करने की
तुम्हारा और मेरा, कुछ नहीं है
१४० अक्षर... रिश्ता नहीं होते

फिर भी
और भले ही यह समय बीत जाए तब भी
मुझे तुम्हारी परवाह है
उसकी नहीं जो शानदार और दुनिया से बड़ा है
तुम्हारी

तुम मुझे दोस्त ही लगते हो
तुम मुझे जानते तक नहीं!...

क्यों?

मैं जहाँ हूँ वहां बस यह सच है

मैं तुझसे क्या कहूं
नादान तो नहीं ही है
वह जिस में बह कर ढूँढ़ते थे किनारे कभी
आज लगता है बिन किनारे ही
कुछ देर बह लें बस
प्यार से ज़रूरी प्यार का अहसास भर है
मैं जहाँ हूँ वहां बस यह सच है
तू जहाँ है
अब भी प्यार बस्ता है वहां
और तेरे अहसास पे सर झुकाती हूँ
मगर फिर, चुप हो जाती हूँ

कोई ख्वाब कभी याद आता है
किसी अतीत की आवाज़ में
किसी कल की पुकार ढूँढने लगती हूँ
कभी खो जाती हूँ उसमे जो जिया गया ही नहीं
कभी फलसफे लिखती हूँ बीते कल पर
मैं आज में जीती ही कहाँ हूँ?
और फिर क्यों जियूं? किसके लिए जियूं?
लेकिन यह वह, जिसके लिए जीना होता है
यूँ नहीं है
की मैं बीत गयी हूँ कहीं

प्यार से ज़रूरी प्यार का अहसास भर है
तू जहाँ है
अब भी प्यार बस्ता है वहां
और तेरे अहसास पे सर झुकाती हूँ
मगर फिर, चुप हो जाती हूँ

प्यार से ज़रूरी प्यार का अहसास भर है
मैं जहाँ हूँ वहां बस यह सच है

बिखरे कुछ ख्याल से

मेरी तस्वीर में ऐसा है तू
डूबते हुए सूरज
आसमान का रंग क्या था तब
और मेरे भीतर कौनसा रंग था?

कभी कभी और अक्सर
दोनों साथ साथ और दोनों सच
इतना बस की हर पल खुश नहीं होता
कभी कभी अक्सर रिश्ते टूट जाते हैं
कभ कभी अक्सर यह बुरा नहीं होता

अकेले रहने में और अकेलेपन में बहुत फर्क है
कोई अपने साथ न रहा पाए
थोड़ी मुश्किल है
किसी का साथ यूँ न मांग की अकेला है
यूँ मांग की साथ चाहिए उसका

हमे अक्सर तब कि जब ज़रा सा या ज्यादा शायद
अपने ही शब्द सुनाई देने लगते हैं
और मन में अनजानी सी
हिचक होती है
यह हैं भी और नहीं भी हम
तो खुद से दूर रह कर भी तो हो सकती हैं बातें

है कितना फासला और दूरियां कितनी पता ही क्या?
कभी तो सब ही पास हैं, कभी कोई नहीं है

हर एक शब्द, हर एक आह में तुम्हारी
यह सच है, थोडा तो तुम शर्माते हो
बस इतना हो कि तुमको पता हो कोई
कारण नहीं, कि शरमाया करो तुम
है तुम में कुछ भला सा यह पता है?
यह तुम हो, कोई तुमको
न चुरा सकता है
न बाँध सकता है
न बदल सकता है तब तक, जब तक तुम न चाहो
तुम खुद को पहन कर ख़ुशी से घूमों
भलापन पहने बिना भी, दीखता है...

क्या बात है?

कभी ज़िन्दगी आवाज़ दे
कुछ कहना था तुझे अगर
सब रोक के खड़ी हूँ मैं
अब तू बता, क्या बात है?

तुझसे खफा नहीं हूँ मैं
खुद से खिलाफत है मगर
क्या इससे बहतर कोई कल
होगा कभी, मुझको बता?

एक जेल है मुझमे कहीं
मैं खुद में सब कुछ हूँ मगर
आज़ाद ही बस हूँ नहीं
तू है अगर, आवाज़ दे..

खुद को बुलाता है कोई
और कोई खुद आता नहीं
वह कौन है जो "मैं" है यहाँ?
"मैं" कौन हूँ, जवाब दे?

बीता हुआ परछाई है
परछाइयों की होती नहीं आँखें बस एक
अँधेरा सा चलता है साथ साथ हर एक पल
मैं कहीं इतना ऊपर उड़ के जाना चाहती हूँ
मेरी कोई परछाई दिखे ना कहीं पर भी
और शायद आसमान में कोई घर भी हो मेरा
मैं अपनी आवाजों से हूँ परेशां
कुछ तू बता अब -

क्या बात है?

The 29th Birthday

This is a day late and it is meant for SK. I had a bad day yesterday, an especially bad one and then late at night I went on twitter and I saw a 'tweet' on miracles by him...

So its with a 'thank you' that I wish him...

The 29th Birthday

I did not think 30
was any more than a number
and I still think that it is so
because I make it so,
At 29, I was still young
At 31 suddenly, I feel old!

I was hopeful still,
and in every madness - sanity prevailed,
I was never ‘still’
And when moments stopped - Dreams sailed on…

My friends who are 40 or more often said
in 10 years or so you will know
they are all people who have stopped believing you know,
and I didn’t fear it at all somehow
after all what could change if a number did
I will still be me
and so if I fall and when I fall
I’ll get up, wont it be?
I blocked the thought and pitied them
and I told myself its fine
this loss of hope and dream and all
will never ever be mine

The saddest is the belief in love
I took it so for granted
yes people come and people go
and they are never what you wanted
but the belief stayed as did the hope
of not the right person, but faith per se
that love is more than fantasy and gimmick and that
love per se, will not betray

My dearest, I feel foolish so
childlike and immature
and yet ‘common sense’ was ‘cynicism’
and I was the last one ‘sure!’

In between my fingers and palm
I hold a little light
And touched with faith, you know it can
still shine very bright
I give you this and hope and dreams
and I wish for you they shine
And with all the faith and love I hope
You are forever, twenty-nine.

Sunshine...

I began writing this for my 1.25 yr old niece Tia, but I think I ended it writing to to myself and everyone else! Most of our lives follow patterns of loss and changes we are unprepared for... I look at Tia, howling away to glory one moment and distracted by a toy, a song, a chocolate in the next, she had lost something, she was hurt, bruised even and then, she just got up from between bitter tears and found something else! God bless her ability to do so, may God minimize her tears and multiply her happinesses... and I think.... where and when did I lose my ability to find that 'something else'?

Thank you little one, this ones for you.:)

So you did not get what you wanted
That toy, that time,
that outing, sunshine...

The little bird you ran after little girl
flew away and you cried
That puzzle that day that broke - didn't fix
God knows, you tried

And you fell and got hurt
And there was a bump and it was blue
and you'll fall a million more times little girl
And this too, is true....

Know love and know always
no matter what it is
there will always be something else
it is never 'just this'

so in streams of tears there will be smiles
but since you are crying you wont, accept them at once
but you'll giggle and laugh and be all new again
if you are will to take it, there will always be a chance...

वीरानी

याद आ रही है मुझे किसी की
पर किसकी मुझको याद नहीं
खालीपन है और थकान भी है
और फिर भी कुछ फ़रियाद नहीं

या फिर शायद फरियादें हों
पर फरियादों में शब्द नहीं
वैसे भी कहीं कोई शब्द नहीं
जहाँ हैं भी वहां भी शब्द नहीं

किसी परी-कथा का हिस्सा हूँ मैं
खुद अपना पता हूँ भूल गयी
इस जनम में किससे मिलना था
कब कौन कहाँ, सब भूल गयी

तेरा मुझसे वादा था तू
फिर मुझको ढूँढ निकालेगा
तू सामने भी पड़ जाये तो
तू कौन बता ? मैं भूल गयी...

शायद मेरी यादों में जब
एक टीस उठा करती है तब
शायद करती हूँ याद तुझे
शायद करती फ़रियाद तेरी
तू उसी समय का किस्सा है
तो तुझको तोड़ पता होगा
आ फिर से मेरी याद में आ
और खुद को कोई नाम तो दे
मैं कैसे तुझे पहचानू बता
तू ही मुझको पहचान ले
बड़ी वीरानी सी छाई है
और याद भी मुझको आई है
पर किसकी मुझको याद नहीं
पर किसकी मुझको याद नहीं...

I am marked

I am marked

As if a the tail of a scorpion
As if a shoe lace
As if a snake
Or the tracks of the railway

Crooked red-brown broken marks
Three inches in the left
Four inches in the right foot
Three inches in the wrist

Bruised red skin
Swollen up in parts
Talking more of injury
Than recovery perhaps

Someone asked me recently
Which pain is worse
Of the body or the mind?
Which hurts?
More?

I am marked.

Lack of definition

Is there a place between making love and sex?
Because I felt no overwhelm of emotion
that led to God or
restored a greater belief somewhere
or made me one with the universe ...
And yet there was no animal instinct at play somehow
What was it
that took me beyond my inhibitions
and you - beyond 'society'?
In the view of my eyes was your head
and I remember it more in "inactivity"
when you just lay over me - doing nothing
and my hands brushed your hair
effortlessly - in acceptance and warmth
of who you are and who I am and how close
we were - despite a whole world of differences
between us, around us - making us and breaking us -
I have movements and sensations in blurs
passing in and out of my vision and my memory
I smile
At times a touch becomes a feeling
At others a sensation affirms its right to remain just that
I feel currents rush from pore to pore...
And I remember cuddling up to you later
Bodies defying time, commitment,
yesterdays and tomorrows -
just holding, touching, feeling,
this, here, now -
how precious, how timeless...
even as it would not last - a moment after-
for its lack of definition
and yet, timeless...
for its lack of pretension
lack of perfection
the very same
lack
of definition.

ख़ामोशी किससे बाटूँ

किसी ने पुछा था कभी
की तब जब तुम्हारे जीवन में
इतने लोग हैं
और वोह सब ऐसे हैं की जिनसे तुम प्यार करती हो
और वह तुमसे
तो फिर तुम इतनी अकेली क्यों हो?
कैसे हो सकती हो?

मैंने कहा था ऐसा इसलिए है
कि जबकि मैं उनके जीवन में ज़रूरी हूँ
सबसे ज़रूरी नहीं
इसको समझने में, इतना मुश्किल क्या है?

लेकिन अकेलापन सिर्फ यह नहीं होता

दोस्तों से अक्सर बातें होती हैं करने को
तब क्या करो जब बातें सब हो चुकी हों
और अभी नयी पैदा न हुई हों
या इतनी छोटी हों कि 'बातें' ही न हो वह

ख़ामोशी किससे बाटूँ?

Feeling vulnerable...

What is most difficult is writing about things that makes one feel completely vulnerable. So, accepting something like I am scared of this time that is likely to come, when I wont be able to write may be (because the stitches in my hand might not allow me to), and scared of full days of nothing therefore... and then this absurd desire that I'd want someone around me all of that time [logically, it makes no sense because one its impossible, and two it might not be so bad after all, and three there will still be TV and resting and sleep and the phone for God's sake, but because I am scared and vulnerable, I want someone around - and I want a certain someone around more than others... even though I want the others too, but others I am able to say things to!) is very difficult. It doesn't make for nice words and if I have to be true to the feeling, I cant appear to be any stronger than I am feeling, and what I am feeling is pretty weak!

In English, I had written this last night, and I tried to write it in Hindi to see if it sounded any less terrible... it doesn't really! But I must share this with my "void" ... may be just that, will make me stronger!

What am I to do when I cannot write?
Will you spend time with me?
Will you? How much?
I will need to see you when I wake up and when I go to sleep and I do not ask
because nothing could be more unreasonable..
But would you hold my hand and sit at least?
Will you sit by me or lie with me as I sleep?

Am I fudging my desires
In some sort of rhythm?
And this is supposed to make a lier out of me?
And I could be true
Only if I asked
Asked the "impossible"
Out of you?

Yes this way I accept
'defeat' without a fight
I get defeated by both you and me
But there are so many battles
constantly being fought
So in just this one -
Wont you let me be?

Oh I know this is the most important one
I know it in every cell of my being
But who do I fight and fight for my love?
I was defeated before I'd begun.

तब क्या करूंगी जब
लिख नहीं पाऊँगी कहो?
क्या तुम बिताओगे मेरा समय?
सचमुच? कितना?
क्योंकि मैं देखना चाहूंगी तुम्हे तब जब आँखें खोलूं सुबह
और तब जब सोने जाया करूं
और मैं यह मांगती नहीं क्योंकि
यह कैसी बेसबब सी बात है
इससे ज्यादा बेमतलब शायद कुछ भी नहीं है
पर क्या कम से कम
मेरा हाथ थाम के बैठोगे?
क्या मेरे पास बैठोगे
या लेटोगे तब जब मैं सो रही हूँ?
सीधी सीधी भावनाओं की हिचक को बाँध कर
बहते हुए शब्दों में कहो
क्या मैं झूठी हो जाती हूँ?
और सच्ची बस तब
जब मैं मांगूं तुमसे
वोह - जो हो सकता नहीं?
हाँ इस तरह से बिना लड़े मैं हार जाती हूँ
मैं हार जाती हूँ तुमसे और खुद से भी
पर कितनी साड़ी लड़ाईयां हैं लगातार लडती हुई..
तोह क्या बस इस एक बार
यूँ ही नहीं छोड़ सकते?
हाँ मैं जानती हूँ यह लडाई
सबसे ज्यादा ज़रूरी है
मैं, मेरा हर कंड जानता है
पर मेरी प्यार बताओ मुझको
किससे लडूं और किसके लिए आखिर?
शुरुवात से बहुत पहले हार चुकी थी मैं...

तब क्या करूंगी जब
लिख नहीं पाऊँगी कहो?
क्या तुम बिताओगे मेरा समय?
सचमुच? कितना?
क्योंकि मैं देखना चाहूंगी तुम्हे तब जब आँखें खोलूं सुबह
और तब जब सोने जाया करूं
और मैं यह मांगती नहीं क्योंकि
यह कैसी बेसबब सी बात है
इससे ज्यादा बेमतलब शायद कुछ भी नहीं है
पर क्या कम से कम
मेरा हाथ थाम के बैठोगे?
क्या मेरे पास बैठोगे
या लेटोगे तब जब मैं सो रही हूँ?

सीधी सीधी भावनाओं की हिचक को बाँध कर
बहते हुए शब्दों में कहो
क्या मैं झूठी हो जाती हूँ?
और सच्ची बस तब
जब मैं मांगूं तुमसे
वोह - जो हो सकता नहीं?

हाँ इस तरह से बिना लड़े मैं हार जाती हूँ
मैं हार जाती हूँ तुमसे और खुद से भी
पर कितनी साड़ी लड़ाईयां हैं लगातार लडती हुई..
तोह क्या बस इस एक बार
यूँ ही नहीं छोड़ सकते?
हाँ मैं जानती हूँ यह लडाई
सबसे ज्यादा ज़रूरी है
मैं, मेरा हर कंड जानता है
पर मेरी प्यार बताओ मुझको
किससे लडूं और किसके लिए आखिर?
शुरुवात से बहुत पहले हार चुकी थी मैं...

the dark corner

'Nothing about you moves me'
is what he said one day
and I choose to remember that and not
that he'd also said
there's a lot of goodness in me -

From that I remember
him describing goodness in other people
I feel as if something escapes from inside me
looks for a little dark corner somewhere
and hides
so the glare from the brightness being described
doesn't blind
doesn't hurt
even as it outshines
my defeated self...

I know this is not what he meant to do
And I know this is not how I ought to understand
He states, because he sees
he sees and he feels
and an expression of truth of a moment
or an eternity
is just that - that it is -
an expression of truth
I understand -

But I do not come out
of that little dark corner
as I hope he sees - a light in me -

......

And then one day, she shone so bright
that there was no dark corner at all
secretly she had learned to talk to the light inside
and that was hers to call...

Nothing about you moves me -
She remembered -
Nothing about him moved her either, it never had -
Except - that he WAS
and that she 'loved'
Everything else
disappeared
with the dark corner!

Glitter

1.

I am scared that I will lose
certain conversations
expressions - and forget
the movement of your eyes
the lightness of your smile
I already remember - just some parts
(that I knew I wouldn't forget
even while they were being said)
And have forgotten so much ...

2.

In ordinary sand sometimes
in some kinds of light -
you can see
- glitter -
and even when you let the sand fall
and brush your hands and all
it shines...
Is that - stardust?
Why do I have the memory so vivid
of eyes looking at tiny palms
outstreacherd, and glittering
with stardust?

3.

Is it true that I do not know
how to desire?
that an 'I' as strong as mine
is hidden behind what others want and not 'me' -
And that I have no idea of what
I want -
Of course -
its true -
and I have known it forever -
Yet -
it was you who found the words to say it
Not me....

4.

Who am I to you?
What role do I play in your life?
And how is it not a question of self-worth
When my love has defined me forever,
Except this once...
But still..
The thought is new to me
And I am used to defining myself
With my love and in rejection I feel
- worthless - till I find myself again
And talk me out of misery and myth and insecurity -

May be its a good thing
that I am nothing to you,
Because if I were, I'd be content in
that answer -

Now - I break - the question - and ask -

Who am I?

Who - am - I?

5.

I am scared that I will lose
certain conversations
expressions - and forget
the movement of your eyes
the lightness of your smile
I already remember - just some parts
(that I knew I wouldn't forget
even while they were being said)
And have forgotten so much ...

...

That I wish to reach out is true
But so is that I know for once
No one will come and sit by me
and hold me as I sob... very quietly...
And endlessly perhaps...

The stories are but all the same
and have been told a million times
and I have nothing more to say...
just cry and may be wither away..
The withering will be slow perhaps...

So I sit here and judge myself
and close myself to being judged by you
there is nothing left to understand
and of course I never stood a chance...
So disappear I will perhaps...

I feel far away from friends I know
I feel far from everyone but me
And every tear that longed to come
flows unattended one by one...
I never knew how to reach out though
I never knew how to ask perhaps
I don't even know how to give without
feeling shy and most inhibited
I have wanted someone to find the words
the eyes, the warmth that could make me live
give me meaning and reason and hope I know
and I know no one will ever come..
That I wish to reach out is true
But so is that I know for once
No one will come and sit by me
and hold me as I sob... very quietly...
And endlessly perhaps...

अब बस - चुप..

कोई और कुछ प्यार के काबिल नहीं है सच
छलावा है, यह खेल है, और वोह बातें सारी
जो सब दुनिया सुनाया करती है
जिसपर किताबें लिखी जाती हैं और नगमे कहे जाते हैं
फिल्मे बनायीं जाती हैं और
मुझ जैसे कुछ और भी महा मूर्ख
बहा करते हैं -
झूठ हैं

आप का कोई अस्तित्व नहीं है
आपकी भावनाओं का कोई मोल नहीं
आपके जीने या मर जाने से
किसी को कुछ भी नहीं

कर लीजिये महसूस, जो भी करना हो
लिख लीजिये चिठियाँ और कवितायेँ
या रो लीजिये, पकड़ पकड़ के दीवारें

कोई नहीं आ रहा
समझ नहीं आता तो कोई बात नहीं
फिर भी - कोई नहीं आ रहा
आ जायेगा समझ कुछ और गुस्से और आंसुओं के बाद

और फिर आप भी
बुत बन जायेंगे
देखी है न बुतों की दुनिया
खुद को छलावा देती हुई
या खुद से बात ही न करती दुनिया
है, क्योंकि है, और जीते जाएये

याद है कितनी घिन्न आती थी इन बातों से?
कितना गुस्सा की लोग जीते क्यों नहीं?
डरते क्यों है इतना?

आ जाईये अब चुपचाप
छोड़ दीजिये घमंड अपना
आप कुछ बहतर नहीं, अलग नहीं
बिलकुल बेबात, बेकार किसम के हैं
ज़रा ज़मीन पर उतरिये
वह देखिये उस लाइन में, बाएं से तीसरी जगह
वह आपके पुतले के लिए है

यह इंसान वाला झोला उतरिये
बढिए आगे

बहुत बोल चुके
अब बस
चुप..

तू मिला था मिली थी वो जन्नत मुझे

तूने कहा था मुझसे
मैं वोह हूँ, जो सारी दुनिया को छोड़ के आ जाउंगी
तू आ जाये तो आज भी मैं छोड़ दूं दुनिया सारी...

कोई प्यार ऐसा नहीं होता कि इतना पूरा लगे
ज़मीं और आसमा मिल के एक होने लगें
कहते हैं वहां शायद, सब सपने सच हो जाते हैं
तू भूल गयी, बहती नदी और उसके पास, घर अपना...

तेरी हंसी में अब भी खो सकती हूँ मैं
तेरी बे-बात बातें सौ जनम तक सुन सकती हूँ
रोज़ गा सकती हूँ मैं तेरे लिए, आधी रात की इस जिद पर
'मुझे गाना सुना; अभी सुना; सुना ना..'

तेरे हाथों का स्पर्श, अब भी याद है मुझको
तेरी आँखों से कही हर एक बात... बे-शब्द कहाँ?
कोई मंज़र था अगर, जब मैं सचमुच जीना चाहती थी...
तेरे साथ था...

तूने कहा था मुझसे
मैं वोह हूँ, जो सारी दुनिया को छोड़ के आ जाउंगी
तू आ जाये तो आज भी मैं छोड़ दूं दुनिया सारी...

तू मिला था मिली थी वो जन्नत मुझे...

बहुत, बहुत, बहुत, बहुत, बहुत, बहुत...

पुकारूंगी तो लौट आओगे क्या?

हाँ गलत नहीं हो तुम चले जाने में
कि आखिर मिल के भी तो लड़ा ही करते थे ना
कहाँ थे दोस्त ? अब तो पता तक नहीं मुझे
कि आखिर पास थे तब पास तो नहीं ही थे
हाँ तुम्हारा थक के जाना, इससे जायज़ कुछ नहीं
हाँ तुम्हारा लौट के फिर ना भी आना सही है
तुम हर चीज़ में तो सही नहीं हो शायद
तुम्हारा छोड़ जाना सही है...

मेरे दोस्त और दुश्मन मेरे, तुम याद आते हो
जब आँखें भरने लगती हैं तो फिर मैं पूछती हूँ, क्यों?
कि आखिर रिश्ता ही क्या था कि मैं अब रो रही हूँ?
कि कोई वादा कोई झूठ कभी भी नहीं था...
कोई उम्मीदों के हक नहीं थे, कुछ भी नहीं था फिर?
मेरे दोस्त और दुश्मन मेरे, तुम याद आते हो
जब आँखें भरने लगती हैं तो फिर मैं पूछती हूँ, क्यों?

हाँ मैंने ही कहा है कहाँ मुझको संभाल पाओगे
और यह भी तो आकर भी तुम ना पहुँच पाओगे
हाँ मैंने ही कहा कि रिश्ता हो तो भी नहीं होगा
चलो जाओ चले जाओ चले जाओ कहा मैंने...
यह हक मेरा नहीं कि 'डरों' को समझो तुम
यह हक मेरा नहीं कि विश्वास करो इतना कि मुझे फिर आ जाये उम्मीद रखना - विश्वास करना
यह हक मेरा नहीं कि छू भर के तोड़ दो दीवारें सारी,
यह हक मेरा नहीं पहुंचू मैं तुम तक
यह हक मेरा नहीं की समझो मुझको
यह हक मेरा नहीं की समझू तुमको
हाँ शायद ठीक ही है - फासला जो है - 'हकों' का है
या शायद डर यह मेरे, ठीक हों कहो?

हाँ शायद ठीक ही है फासला जो है
.....

गले में अटके हो... बाँहों में ले लो...
मैं शायद रो लूं तो जीने लगूं फिर...
मैं मर के याद आउंगी ना तुमको, इतना तो बता दो?
मैं तुमको याद आती हूँ क्या....
तुम मुझको बहुत याद आया करते हो...
और मैं तुमसे कह भी नहीं सकती हूँ अब
और जाने कबसे कि तुम यह जानना चाहते नहीं हो...
तुम मुझको बहुत याद आया करते हो...
तुम मुझको बहुत याद आया करते हो...
तुम मुझको बहुत याद आया करते हो...
बहुत, बहुत, बहुत, बहुत, बहुत, बहुत...

पुकारूंगी तो लौट आओगे क्या?

यह सच भी हो शायद की खुद को मार रही हूँ

यह सच भी हो शायद की खुद को मार रही हूँ

मुझे यह पता है ज़रूर
कि तेरे ना होने का दर्द उतना नहीं होता
कि जितना वह, कि जब तू पूछ लेता है
मैं कैसी हूँ...
यह टुकड़ों में मिला रिश्ता - तेरा और मेरा
बहुत मुश्किल हो जाता है
मैं खुद को समझा के मना के बैठी होती हूँ कि मैं कुछ भी नहीं तेरी
तू क्यों फिर पूछ लेता है, मैं कैसी हूँ?

तुझे इससे ये वास्ता ही क्या
कुछ एक देर चलके छोड़ देगा साथ मेरा
जो शब्द ज़ोरों से मुझको यह बतलाते रहे हैं
उन्होंने यह तो नहीं कहा की चले जाने से मेरे
तुझे कुछ फर्क पड़ेगा?
स्विच है ना? बंद हो जायेगा, बहुत आसानी से...

जो सीमाहीन हो उसको तू कहता है
तेरी सीमाओं में मुझको बता, जी जाये वह कैसे?
तुझे तो, 'प्यार' है यह तक नहीं पता
तुझे तो, 'प्यार' है यह तक नहीं पता...
तेरी सीमाओं में मुझको बता, जी जाये यह कैसे?

मुझे अब इतनी आदत हो चली है
की जो बोलेगा तू वह चुभेगा ही
मैं अपने आप को इतना संभाले फिर रही हूँ
और मेरे दरवाज़े भी सब बंद ही हैं

मेरी निभ जाएगी इन्ही बंद दरवाजों के पीछे सुन
तू कुछ कर सकता हैं तो यह कर,
की अब दस्तक ना दे
मत पूछ मुझसे कैसी हूँ मैं
मैं रोती हूँ तो तुझको कुछ नहीं होता
तड़पती हूँ, मरे जाती हूँ, मुह फेर लेता है
मेरे भीतर जो सबसे गहरा है
तू उसको 'झूठ' कहता है...
तो इससे फर्क क्या पड़ता है, की कैसी हूँ मैं?
मैं सचमुच कैसी हूँ, इससे तो कोई फर्क नहीं पड़ता?

तेरे रिश्ते की शर्त यह है गर, की बीमार मैं रहूँ..
या कुछ बहुत हो गड़बड़ की जिसको ठीक करदे तू
यह छलावा, यह प्राथमिकताएं अपने पास ही रख
तेरे आने क्या क्या मतलब?
की तू तो आएगा तब जब तुझे आना होगा
मैं किस पल मर रही थी, इसका तुझसे वास्ता क्या?

तू क्यों फिर पूछ लेता है, मैं कैसी हूँ?

क्या कविताएँ मर जाती हैं?

क्या कविताएँ मर जाती हैं?

वक़्त बीत तो जाता है ही
लौट के भी आता तो नहीं है
पर हम तुम भी तो मर जाते हैं
कोई कहीं जाता तो नहीं है?

हाँ याद ढूँढने निकले एक दिन
कोई कहीं पर मिली कविता
थोडा हँसे और बोल लिए पर
कहाँ कहीं पर मिली कविता?

उस पल में छिप के बैठी है
जिस पल की प्रियसी हो बैठी
हम तो फिर भी चल निकले
यह - जीवन भर का प्यार करेगी..

देखो सारी आवाजें कहीं दूर निकल के जम जाती हैं
मैंने सुना था अन्तरिक्ष में - अंतहीन डोला करती हैं
हम तुम भी तो जी जाते हैं - मर के फिर से उठ जाते हैं
और वह सारे जो मर जाते हैं - वह भी कहो, कहाँ जाते हैं?

क्या कविताएँ मर जाती हैं?
हाँ कविताएँ मर जाती नहीं हैं..
नहीं सुनो, जीती रहती हैं
मरती रहती, जीती रहती हैं...
जीती रहती हैं... धीरे धीरे... धीरे धीरे

तुमको लिखी एक और चिठ्ठी - 1

तुम्हे समझ आता तो तुम बता दो
क्या करूं मैं
सांस, ऊपर की ऊपर है, नीचे की नीचे
तुम्हे कुछ कह नहीं सकती कि आखिर
तुम्हे तो प्यार नहीं है ...

लगता है अब बात होगी तुमसे तो रो पडूँगी
मन गले तक भर आया है
क्यों तुम्हारे पास नहीं हो सकती हूँ?
क्यों साथ नहीं हो सकती?
कब पिछली बार हुआ था ये,
अब याद भी नहीं मुझे
हुआ करता था, पता है लेकिन....
और शायद यह भी बीत जायेगा...
लेकिन अभी तो लगता है, जो कुछ है, हमेशा सा है
और चाहती भी नहीं, कि बीत जाये यह..
मैं जानती हूँ शायाद गलत हूँ मैं... लेकिन शायद, नहीं भी तो ?

कोई किसी को बंदिशों में नहीं बाँध सकता
तुम मुझसे पूछोगे, क्या रोज़ सुबह एक बार बात करूं तो तुम्हारा दिन बहतर बीतेगा?
नहीं मेरी जान, तब बहतर बीतेगा जब तुम्हारी आवाज़ में भी उतना ही इंतज़ार हो, जितना की मेरी
प्यार अहसानों तले दब जाता है और दोस्ती भी
मैं तुमपर बंदिशे नहीं डाल सकती
लेकिन मैं यह रोक भी नहीं सकती जो हो रहा है
यह दर्द, यह भरापन... यह अपनापन..

बस उम्मीद कर सकती हूँ कि तुम इसको झेल पाओ अगर, जी न पाओ तो
कि कहीं दूर न चले जाओ... पास न भी आओ तो
मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है
न होगी इन वजहों से कभी - शिकायत भी हक मांगती है मेरी जान
मुझे तो यह हक भी नहीं
की मुह उठा के तुम तक, पहुँच ही जाऊं...
तुम्हारे सिरहाने बैठी रहूँ...कोई किताब ही पढ़ते भले...
मेरे पास होने से तुम्हे नर्मास मिले...

तुम्हे समझ आता तो तुम बता दो
क्या करूं मैं?

तुममे कुछ है... जो मेरा है... सदा सदा के लिए...

तुममे कुछ है जो बहुत दूर है मुझसे
और तुममे कुछ वह भी है, बहुत पास है मेरे जो
जिसकी साँसे महसूस हुआ करती हैं बिलकुल वैसे
जैसे मेरी अपनी धड़कन..

तुममे कुछ है जो बहुत दूर है मुझसे
यह शायद वह है कि जिसको तुम, खुद के पास पाते हो
जो जाने-अनजाने 'तराश कर' खड़ा किया है तुमने
जो टूटेगा नहीं, बहकेगा नहीं, सही और गलत जानता है, वक़्त को पहचानता है, समझदार है

अपने सही गलत में नापा तुला, खुद को अकेला भी पता है तो
उसे पता है, उसका सही गलत ज्यादा ज़रूरी है
और निडर, बेधड़क दुनिया भर से लड़ कर, खड़ा रहेगा वह

उसका सच, उसको मिल ही जायेगा
वह सोचता है, मानता है, जानता है,
जीत जायेगा वह
हार मुमकिन ही नहीं... वह अपने डरों को यूंही नहीं भगा देता
जीत मुमकिन है, इसके कारण हैं,
मस्तिष्क मन से बलवान है, या फिर एक ही हैं दोनों
मन डरता है तो मन को डरा देता है
मन फिर रहता ही नहीं
चुपके चुपके से, मस्तिष्क की ढूँढ कर भाषा - कुछ कुछ कहा करता है - उन्ही दायरों में रह कर
मस्तिष्क को, डर जाना, हार जाना, खो जाना,
मंज़ूर नहीं है..
तुममे कुछ है जो बहुत दूर है मुझसे

और तुममे कुछ वह भी है, बहुत पास है मेरे जो
जिसकी साँसे महसूस हुआ करती हैं बिलकुल वैसे
जैसे मेरी अपनी धड़कन..
कभी तुम्हारी आँखों से झांकता है कभी
आवाज़ में सिहर सा जाता है
कभी हंसी में आ जाता है
कभी गुस्से पे छा जाता है
यह वह है
जो नहीं जानता
और जिसको 'न जाना' मंज़ूर है..
यह वह है जिसको समेट कर, सहेज कर, बहुत प्यार से जीना होगा
यह वह है कि मस्तिष्क तुम्हारा मानेगा ही नहीं, की है यह,
या इसके होने के पीछे की कहानियों और कारणों में खो देगा इसे
यह वह है, जो जाते जाते लौट आया था..

यह वह है
जो कहीं भीतर से थाम लेता है ....
जिसको आता है थाम लेना, बिना छुए , बिना कहे, बिना मांगे
मेरी रौशनी से इसकी रौशनी जगमगाने लगती है
इसकी रौशनी से मैं... जीने लग जाती हूँ
इसे सोच के, अटका रहता है आँखों में आंसूं कोई चाव्बीसों घंटे
मेरा नहीं है, इसका है, इसका नहीं है, मेरा है...

तुम चले जाओगे तो भी पास रहेगा
मैं चली जाउंगी, तब भी...
मेरा कुछ है जो अब हमेशा के लिए इसका है
इसका कुछ है, जो मेरा है सदा सदा के लिए

तुममे कुछ है... जो मेरा है... सदा सदा के लिए...

गर्मास

चलो बाहर बैठ ज़रा चाय पीते हैं
अंगडाई ले रही है सुबह धीरे धीरे से

ठंडी बड़ी होगी अभी
और फर्श भी कुछ ठंडा सा
सुनो शाल लेते आना तो
ज़रा शाल लेते आना तुम

पूरी हथेली में पकड़ लो ग्लास - मज़ा आएगा
भर जाने दो उँगलियों से गर्मास - मज़ा आएगा
तुम चाय पीने लगो अब - अच्छा चलो बस, मत पियो
तुम मुझको देख के क्यों हंस रहे हो?

इतनी सी है सुबह, एक पल में निकल जायेगी
यह काम क्यों करते हैं हम? यह काम क्यों करते हैं हम?
अच्छा मुझे जवाब मत दो, पता है क्या कहोगे तुम
अच्छा कहो भी, तुमको ही तो सुनने को बैठी हूँ यहाँ
तुम मुझको देख के क्यों हंस रहे हो इस तरह ?

भर जाने दो उँगलियों से गर्मास - मज़ा आएगा....

किसी बात पर तेरी कभी

किसी बात पर तेरी कभी
या खुद के ही खयाल पर
मुसकुराती रहती हूँ आजकल
कुछ गुनगुनाती रहती हूँ
जानने वाले कहते हैं यह तो
जाना पहचाना लगता है
जाना पहचाना लगता है...

बहते हुए पानी को कोई कैसे रोक ले
कि बाँध बनाने कभी सीखे नहीं मैंने
कहीं और कर दिया जाए, आज रुख इसका
बहता है तेरी ओर, मगर आज न बहे?
कुदरत का कोई खेल होगा - मान लेती हूँ
हंस के कभी रोक के, यह अहसास होता है
हथयार डल गए हैं, मैं हार गयी हूँ
न जाने क्यों फिर भी खड़ी - मुसकुरा ही रही हूँ...
बहते हुए पानी को कोई कैसे रोक ले?

किसी बात पर तेरी कभी
या खुद के ही खयाल पर
मुसकुराती रहती हूँ आजकल
कुछ गुनगुनाती रहती हूँ
जानने वाले कहते हैं यह तो
जाना पहचाना लगता है
जाना पहचाना लगता है...

हर बारिश बतानी है मुझे

किसी ने मुझे कहा था कभी
"मैं तो वह हूँ कि हर बारिश बतानी होती है मुझे"
और मुझे लगा था, कि हर बारिश सुननी है - तू बता, मैं सुनती हूँ..

मेरा हाल भी कुछ ऐसा ही है
कि हर बारिश बतानी है मुझे
हाँ तू वोह नहीं, जिसे सुननी हो हर बारिश मेरी..
पर मेरा हाल कुछ ऐसा ही है

मैं जानती हूँ जहाँ जवाब ढूँढने को चलूंगी वहां
सवाल उठते जायेंगे
मैं जानती हूँ इस बारे मैं, खुद तक से नहीं की जा सकती बातें
या फिर ऐसा है, कि बस बातें ही की जा सकती हैं

कभी मन चाहता है, तेज़ बारिश हो और
तू भी बहे मेरी तरह, मेरे साथ, बिलकुल बेफिकर
यह अहसास तुझे जुदा है, छुए तुझे और छू के फिर,
कुछ बावरा सा कर दे यह
मैं जहाँ हूँ तू वहां हो, उतनी किसी ऊंचाई पर,
और खुद से बिलकुल जुड़ा भी
और मुझसे भी जुड़ा हुआ..
यह अहसास
तुझे जुदा है....

और फिर संभल जाता है मन
मैं अपने ही हिचकोलों में, तुझको कहीं डुबो न दूं,
फिर, चुप ही हो जाता है मन..

पर हाल कुछ ऐसा ही है
कि हर बारिश बतानी है मुझे
हर बारिश बतानी है मुझे

Saturday, March 6, 2010

तू मेरा होता क्या है?

कोई बता दे तो भला हो
तू मेरा होता क्या है?
तेरी परछाई सी महसूस हुआ करती है
कहीं सब बहसों से अलग
सब बातों से जुदा
उस सब से भी जुदा जो मैं खुद से कहा करती हूँ
तेरा इंतज़ार रहता है ...
यह इंतज़ार भी नहीं
कुछ इंतज़ार जैसा है
(अपनी परछाई से पूछ...
सब उसको पता रहता है...)

तू मेरा होता क्या है?

कुछ भी नहीं है कहने को
जो था कहा जा चुका सब
शब्दों के अंत है कहीं, और बहुत दूर भी नहीं..
डर सा लगा रहता है मुझे
कब शब्द सब झड जायेंगे?
जब शब्द यह होंगे नहीं,
क्या बात हम कर पायेंगे?
मुझको अभी हर हवा में
हर सांस में तू चाहिए
यह बीत भी जायेगा कल,
लेकिन अभी तो चाहिए....

देख खुशबू भी है बारिशों में
हवा में कुछ रंग है
मुझसे बिना बताये कुछ ....
पूछे बिना आना कभी
देख खुशबू भी है बारिशों में...

(and after at least one looong sigh)
महसूस होता है मुझे तू... महसूस होता है मुझे..

तू मेरा होता क्या है?

खुशबू वाली बारिश..

खुशबू वाली बारिश..
यह तो मुझे तब भी भाती है जब प्यार नहीं होता
फिर इसी से हो जाता है प्यार सारा
सब कुछ महकने लगता है
मुझे मेरा चहरा और मुस्कान महसूस होने लगते हैं
सुन्दर भी लगता है अपने आप में
ऐसे जैसे इस खुशबू को भी प्यार हो मुझसे
में इसकी आँखों में पूरी हो जाती हूँ
और यह मेरी...
खुशबू वाली बारिश..

हल्कि हल्कि सी ठण्ड
कभी तेज आवाज़, कभी धीमे,
टिप टिप टिप टिप
हौले से कहती है कभी
हड़का भी देती है कभी
जी करता है बाहें हो इसकी
और उनमे समां जाऊं
फिर महसूस भी होतीं है ...
खुशबू वाली बारिश..

क्या पता?

Sometimes love just gets blown out of proportion. It is true that as a concept it is may be the purest, but more and more people reach that place in their hearts where they find it over-rated. The good ones among them become more tolerant and the desire in them to love, changes form, sometimes it becomes love for the world, at other times it becomes a happy routine of duties, and life goes on…

Some people just become bitter and close and life goes on for them too… these are a more dangerous type though, because in their own insecurities and the unconscious decision that they are protecting themselves, they harm both their own selves and society at large.

The right energy to be sent into the universe cannot be soaked in right and wrong, true and untrue, challenges and wars, it has to be soaked in warmth and well-being, you can only be un-selfish when you are operating from a sense of security of self, you can only be genuinely kind in your heart and be there for people, when you are secure in the place that you come from deep within… and whatever healing must take place, must take place by touching that within… unfortunately people who need it most, also guard it most…

Somehow they never realize the power that vulnerability gives…

More on this too…at some point…

I wrote the poem below during the day today, seems like it might be a last in the series, may be not, but that’s what it feels like right now, so here goes:

बिना नामो का यह रिश्ता मैं परेशान हूँ क्या मानू?
वह जो मुझसे कहा रहा है?
या वह जो और सब और तेरी आँखें कहती हैं? वोह जो कहते है वह, जो बातें करते हैं तारों से?
सारी कायनात और मैं एक ओर, और एक ओर वह, की जो तू कहता है... क्या मानू?

तेरे सच में क्यों शामिल हैं यह इम्तेहान इतने?
क्या इम्तेहान लेना सच हो सकता है?
यह तो खेल जैसा है, और मैं वैसे ही हारी हूँ
तू मुझसे जो कहेगा, कर ही दूँगी न?
तू मुझसे जो कहेगा, मान जाउंगी

हाँ शायद यह ही सच हो, की तुझे तो प्यार नहीं है
हाँ शायद येही सच हो, तुझको नहीं आती याद मेरी
तू मुझसे बातें करता है, क्योंकि मुझको चाहिए वर्ना
तुझे इनसे मुझसे कोई सरोकार नहीं

तू कहता है तो मैं मान लेती हूँ
तू चाहता है मैं सौ आँसू जियू, मैं जिए जाती हूँ
तू चाहता है मैं खुद को तोड़ कर करुँ प्यार तुझसे न?
तो चल मैं टूट जाती हूँ....

तू मत उठाना की आखिर तुझे प्यार नहीं
बिखर जाने देना हवा में,
है धुल, उड़ ही जायेगी

मैं कभी चली जाऊंगी
तो शायद याद आउंगी...
क्या पता?
शायद...

यहीं..

सुबह उठी तो तुमसे दूर थी
फिर समझ आया कि एक सपना सा देख उठी हूँ..

मैं एक दोस्त से तुम्हारी ही बात कर रही थी...
तुम आये, मेरी आँखों में देखा,
और इससे भी पहले कि मैं कुछ कहती, पूछती, पढ़ ही पाती कुछ
मेरे पास आकर, तुमने मेरा हाथ अपने हाथों में यूँ लिया
कि किसी सवाल या जवाब की गुंजाईश ही ना हो
शायद मेरी आँखों में आँसू आ गए थे तब
शायद तुम्हारी आँखों में भी कोई दर्द था अपना
मैं तुमसे मिलके धीरे धीरे से, कुछ रोने लगी थी
मुझे अहसास है मैं जो रो भी रही थी
वो बस मेरे नहीं थे आँसू - तुम्हारा दर्द भी थे वो
तुमने मुझे थामा था या कि मैंने तुमको
इसका जवाब ना ढूँढना था, ना ही था कोई...
बहुत देर यूँही बैठे रहे हम...
(पता नहीं उस दोस्त का क्या हुआ जिससे मैं बात कर रही थी!!)

फिर ना जाने क्या हुआ... मेरा अगला अहसास यह था
कि तुम कहीं चले गए हो और मैं सोच रही हूँ, क्यों?
जैसे फिर अपने भीतर घुस जाना चाहते हो
अपने आप को, यह जीने नहीं दे सकते तुम
बंद कर दिए हैं सब दरवाज़े...

और तब कभी उठी थी मैं
तुम से दूर...

मैं यहीं खड़ी हूँ, अपने आधे अधूरे प्यार को लेके
तुम्हारे पास ना सही, तुमसे दूर ही सही...यहीं..

पकड़ के हाथ बैठा रहा - यह क्या कहा जाता है?

ये इससे क्या मतलब है की कहाँ हूँ
करती क्या हूँ ?
बस यह अहसास है कि तू नहीं है
बहुत कुछ कहा रहे हैं बहुत सारे लोग और
बहुत कुछ सुन रहे हैं, सुनाई नहीं देता कुछ भी

यह ऐसा क्यों है कि पूरा प्यार भी नहीं
सर उठा के कायनात से फिर मांग लूं तुझको
या जी भर के रो ही लूं
कि तू नहीं अपना - कि यह तड़प अकेली हैं, और तू कहीं और...

यह ऐसा क्यों है की पूरा प्यार भी नहीं
कि पूरे दर्द का हक हो, तेरा हक हो, तेरा हक न भी हो तब भी

यह ऐसा क्यों है कि, इस एक बार जब मुझको नहीं चाहिए शब्द - तो तुझको चाहिए...
पकड़ के हाथ बैठा रहा - यह क्या कहा जाता है?
पकड़ के हाथ बैठा रहा - यह क्या कहा जाता है?

Thursday, March 4, 2010

बहुत चीनी खा लेने का अहसास

बहुत चीनी खा लेने का अहसास याद है
उछल उछल के बे बात हंसते जाने का?
क्या था आज की शुरुवात में?
मुझे लग रहा था सारी कायनात मेरी है

धड़कने तेज़ थी और लहर दौड़ रही थी इधर से उधर
किसी एक से ज्यादा का अहसास था
बहुत दिन बाद, कोई बहुत दूर वाला बहुत पास था,

सारी दुनिया पास थी,
मैं खुद के पास भी थी
मगर पहचान नहीं रही थी खुद को
बहुत चीनी खा लेने का अहसास था

जब उतरता है, पता है न क्या होता है?

The usage of the term "Ghadha" in a so-called poem!! WHAT?????

दोस्ती पर फर्क तो पड़ना ही था
तुम गधे हो अगर पता नहीं था तुम्हे
और तुम बहुत हवा में रहते हो
कुछ ज़मीन पे आओ, तो ज़मीं वालो का
अहसास होगा तुम्हे

मुह उठा के तुम्हे कुछ कह दूं अब?
जब कहने को कुछ है ही नहीं
कि सुबह हुई है और तुम्हारी याद आती है मुझे
तब जब की जानती हूँ लड़ के सोये हो
अभी तो दुश्मन हूँ न तुम्हारी, मैं दोस्त नहीं?

मुझे पता था तुम्हे समझ नहीं आएगा
मुझे खुद को समझने में भी तो देर लगी थी
यह वोह है ही नहीं जो हवाओं में भर के कायनात को भर देता है
मेरा जां, प्यार फिर भी है यह... याद करता है तुम्हे..

तुमसे पहले में यह सदी गली कविताये भी नहीं लिखती थी
जिनमे किसी को गधा कहना पड़े
पर तुम गधे हो तो कहो क्या करुँ
मैं मर जाओ कहीं जा के
जान मत खाओ.

Ok, this has to be the worst thing ever written, but it comes completely from the heart and I stand by every single stupid emotion! Oh well, what the heck!

काम करने दो, याद मत आओ..

हद है दिन की
जिस तरह शुरू होता है आजकल
हटो जाओ, यूँ सुबह सुबह
काम करने दो, याद मत आओ

दिन चढ़ते चढ़ते दूभर कर दोगे
मेरा जीना, मेरा मरना, सांस लेना मेरा
अब मैं बीस साल की नहीं हूँ, दिन मैं और भी बहुत कुछ करने को
हटो जाओ ना ... याद मत आओ

मेरा बस चले तो बाँध ही लूं समय
मेरा बस चले तो तुम हंसो ज्यादा
मेरा बस चले तो कुछ भली सी हो दुनिया
मेरा बस, चल तो नहीं सकता ना

यह क्या जिद है, दिन के चढ़ते ही
मेरी आँखों में हसने लगते हो?
हटो जाओ, यूँ सुबह सुबह
काम करने दो, याद मत आओ..

जाओ ना...

थम

"थम जा", कह रहा है वो जो की
मेरे सिर के उपरी खाने में बेचारा
"हाय राम इसका क्या होगा"
इसकी रटन लगाये बैठा है

तू तो कह रही थी, तुझको बहना नहीं?
यह कैसा बवाल मचा के रखा है?
चलो तमीज़ से पेश आओ कुछ
ऐसे बच्चों की तरह बहते नहीं

और एक मैं हूँ मुझे पता है क्या हो रहा है
मैं अब बस बह रही हूँ
यह प्यार से, जीवन से, शब्दों से, भावनाओ से
दोस्तों से, रिश्तो से, फूलों और बारिशों से होता प्यार है
तुम तो बस वो कड़ी भर हो जो जोड़ रही है इसको
तुम नहीं हो यहाँ - यहाँ तो बस प्यार है. ..

लेकिन वो जो सिर के उपरी खाने में बैठ मेरी चिंता कर रहा है ना
उसे नहीं पता मेरा दिल, बड़ा बुद्धिमान है...
रुलाएगा यह सच है फिर भी
संभाल भी लेगा, संभाल भी लेगा ...

मैं चाहती हूँ मेरा हाथ पकड़ के बैठा रहे थोडी देर आज

अभी कुछी दिनों पहले तो अकेली थी
इधर उधर किसी से भी बात कर के, या फिर खुद से ही
मन कुछ हल्का भी हो जाता था
नहीं भी होता था तो पता था मुझे
जो भी है, मैं हूँ, बस मैं हूँ और है ही क्या
जो जैसे बीतेगा, बीत ही जायेगा..

और अब... पता नहीं दर्द का दर्द ज्यादा है
या तुझे न बता पाने का,
मैं चाहती हूँ मेरा हाथ पकड़ के बैठा रहे थोडी देर आज
मैं चाहती हूँ मेरा हाथ पकड़ के बैठा रहे थोडी देर आज..

ज़मीन पे आने में बहुत देर नहीं लगती, है न?

ज़मीन पे आने में बहुत देर नहीं लगती, है न?
आपको पता भी होता है मगर फिर भी
इतने करीब है ज़मीन पता नहीं चलता

और उड़े जाते हो, बहते जाते हो, अनगिनत आसमानों में
बे-मंजिल, बे-रास्ता, इसलिए कि कुछ हुआ महसूस ऐसा
जिसको महसूस भर करने को - आत्मा तक तड़प रहे थे ....

कोई उबाल जो आपको गर्मी दे जाता है
था भीतर यह पता था, क्योंकि जानते हो खुद को
यह भी पता था कि बर्फ जमी है भीतर
और फिर पिघले ज़रा तो रो ही पड़े

वोह सर के कोने में बैठा आज सुबह ही तो समझा रहा था
और अब सहला रहा है ... कोई बात नहीं... पता तो था..
अभी कुछ एक दिन पहले ही तो ज़मीन के इतने पास थी तू
दो दिन कि आदत है, बीत जायेगी
... अभी अभी लगी है चोट तो दर्द ज्यादा है
यह घाव भी भर ही जायेगा...
जीने दे खुद को, जीने दे...
थोडा सा रो ले शायद बहतर लगे...

यह समय भी बीत जायेगा
यह समय भी बीत जायेगा.

मुझे ख़ुशी होगी...

I know for a fact that at least one person will find this completely arrogant and will see everything else but love in this, while to me, it is pure love... he may not understand it today but by the time he gets around to life, I have hope, he will... meanwhile, I am here, he can kill me if he wants, but till he doesnt, I am here!

अगर मैं तेरा दिल तोड़ दूं कभी वैसे की जैसे मेरा टूटा था
तबाह और तहस नहस कर दूं इस तरह कि तेरे भीतर -
हर आवाज़ रो पड़े, हर घाव रिसने लगे
हर पुरानी चोट छोटी लगे और
ऐसा हो कि सारा दर्द समेट के उडेल दिया हो किसी ने
तुझे पता ही न चले कि क्यों जीवन भर की बनायीं दीवारे
अपने आप को सुनाये, कहे गए करोडो शब्द, कुछ काम नहीं आ रहे
आ रहा है तो बस और एक टूटन का अहसास और यह कि अब आगे...कुछ भी नहीं दिखता
देखने कि काबिलियत और सोचने का सुरूर, शब्दों का प्यार तक, मर गया है
यह कमाल है कि जिंदा है तू, किसके लिए यह पता भी नहीं, पर है, कि मर नहीं सकता... न जाने क्यों कुछ ऐसा छू गया है...

तो मेरी जान मुझे ख़ुशी होगी...

मुझे ख़ुशी होगी कि मेरे अहसास से तू जीने लगा है
कि पता है मुझे बस एक वो टूटन है जो तुझे जोड़ सकती है तुझसे
जो दिल में जमी बर्फ को पिघला के तुझे - हीरे से इंसान बना सकती है
तेरी चमक में गर्मी ला सकती है

मुझे भी लगा था प्यार आता है मुझे
मुझे लगता था मेरी शब्दों ने मुझे सब जवाब दे ही दिए थे...
और फिर किसी ने मेरे पैरों तले ज़मीन निकाल दी
पहले इतनी खुशी दी कि विश्वास ही न हो,
ऐसा मिला कोई कि लगा यह ही होना था
और फिर ऐसे चल दिया कि जैसे कोई भी न हो
किसी ने मेरे पैरों तले ज़मीन निकाल दी
किसी ने मेरा आसमान खो दिया मुझसे ....
मैं थक गयी हूँ यह सच है मगर
मुझे जीना,
अहसास की गहराई,
रिश्तों को देखना, सिर्फ प्यार से और बांधना नहीं, मान लेना
लोगों को, वोह जो हैं उसके लिए प्यार करना
बुरे में भला देख पाना और हर समय यूं रहना कि जुडी हूँ - कायनात से
खुद को खो देना और फिर सही मायने में पा लेना खुद को..
मेरे दर्द ने सिखाया है
और उसने सिखाया है

मुझे नहीं पता, आज या कभी और मैं, मेरा प्यार, तेरे भीतर की वो गहराई नाप सकता है क्या
मुझे लगता है मेरा होना बस तुझे यही बतलाने को है की बहुत प्यार होता क्या है,
कैसे जीते हैं उसे
और फिर तेरा दिल तोड़ के चले जाने को

मैं तेरी मंजिल नहीं और तू मेरी मंजिल नहीं
पर यह रास्ता दिया गया है हमे तो कोई कारण होगा
मैं चाहती हूँ मेरा प्यार तुझे नरमी दे मेरी जान
और अगर तोड़ देगा तुझे, तो रोउंगी मैं
मगर खुश होंगी
अगर यह मेरी ज़िम्मेदारी है, तो यह ही सही

तुझसे यह बात कहूँगी तो बहुत खफा होगा
कम से कम मन मैं अपने बुरा भला कहेगा मुझे
और सामने भी कहा सकता है, तू तू है आखिर!
मेरा कहना की ' मैं हूँ '... येही मतलब है उसका
मैं सुनूंगी
मैं प्यार करती हूँ
तेरे दर्द का अहसास मुझे खुद से ज्यादा है

सच सच की रट में रहता है
सच सुना नहीं जाता तुझसे,
माना नहीं जाता, उसकी
अच्छाई नहीं दिखती
चुम्बक की तरह, दर्द ढूंढे जाता है, दर्द पकडे जाता है

इश्वर करे, टूट जाए एक बार, तू, तेरा अहम्, और तेरे खुद को दर्द देने का यह सिलसिला
जीने लगेगा तोह सब आसान हो जाएगा
इश्वर करे, मेरे शब्दों में सुन्दरता ढूँढने की जगह तुझे अहसास मिलें...

अगर मैं तेरा दिल तोड़ दूं कभी वैसे की जैसे मेरा टूटा था
मुझे ख़ुशी होगी.

यह कैसा पर्दा पड़ा है मेरी आँखों पर?

तेरी हर ज़िद मेरी सिरआँखों पर
तेरी हर बात का होता है असर
कभी इतना भी की लिखते लिखते
बस तुझे सोच के रुक जाती हूँ...

कितनी बातें अधूरी लगती हैं
कितने जवाब हैं जो दे ही सकती नहीं
कितने सवाल पूछे नहीं जा सकते कभी
कितना कुछ कह भी देना चाहती हूँ

मुझे खुद से लग रहा है डर ...
'मेरी जां' है तो नहीं तू तो फिर कहूं क्यों मैं?
बड़ी जुर्रत है इन शब्दों में, मुझसे लड़ भिड कर
जितना भी रोकूँ, निकल ही आते हैं

क्या पता प्यार से हो प्यार मुझे
क्या पता इसमें तू हो ही न कहीं
तेरी ही आँखें क्यों चुनी इसने?
अपनी हर हद मैं तोडे जाती हूँ ...

डरने लगी हूँ तेरे न होने से
और तुझे कुछ मांगूं, कहूं, हक भी नहीं
अब भी कहती हूँ प्यार नहीं करना तुझसे
क्यों फिर तुझी पे लौट आती हूँ?...

यह कैसा पर्दा पड़ा है मेरी आँखों पर?
यह कैसा पर्दा पड़ा है मेरी आँखों पर?

Wednesday, March 3, 2010

मैं सच में लौट आना चाहती हूँ

ऐ सपने मेरे देखो खिलवाड़ कर रहा है सच मुझसे
मुझे आ के बचा लो, उबारो इससे तुम

मेरी ज़मीन मेरे आस्मा को खो देगा
अल्हड है, मन न मेरा समझेगा
और फिर भाषाएँ इसकी मेरी इतनी अलग हैं
कोई कैसे किसी की बात को फिर जानेगा?
हम अपने ही मतलब निकाले जायेंगे
कुछ एक पल मैं प्यार दूभर सा हो जायेगा
जब सारी कोशिशों पे शक की लगेगी मोहर
और थके इतने होंगे, लड़ न पाएंगे

मैं तो पंछी हूँ, सारा ही आसमान मेरा है
मेरे रिश्ते मेरी जड़े हैं, इनका क्या होगा?
कोई एक घर बनाने की खातिर
क्या एक और घर तोड़ देता है?
मेरे भीतर ही तो हैं दोनों घर - एक से गुज़रता है रास्ता दुसरे घर का
यह अलग हैं ही नहीं, मेरे भीतर - वो कहीं इनको अलग कर देगा?

मैं बंटी बंटी सी जी सकती नहीं
क्यों मुझे खींचता ही जाता है?
मेरे सपने बताओ सच को मेरे..
प्यार करना कहीं पे आता है?

मेरा दिल सौ सवाल करता है
चाहता है की बढ़ के छू ले उसे
वहां जहाँ की दर्द ज्यादा हो
वहीँ कहीं पे कुछ नरमाई मिले
मेरा दिल यह भी तो चाहता है मगर
किसी की बाँहों मैं सो जाए फिर
मेरे अन्दर है कुछ जो कहता है
वो मुझे छू ही नहीं पायेगा...

फिर भी कुछ तो है जो छूता है मुझे
और मैं उससे डरती जाती हूँ
मेरे सपने उबारो मुझको तुम
मैं सच में लौट आना चाहती हूँ
मैं सच में लौट आना चाहती हूँ ...

मैं तुमसे कह देती....

मुझे यह हक तो नहीं पूछूं तुमसे सवाल ऐसे
क्या तुम्हे हर एक तब मेरा ख्याल आता है?
कि जब मुझको तुम्हारी याद आये?

क्या मेरी आवाज़ से दिन बदला हुआ लगता है?
क्या मुझसे मिले बिना मन अधूरा होता है?
तुम्हे कितने पल, कितने अहसास याद हैं मेरे?
कौनसा चहरा मेरा तुमको हंसा जाता है?
कौनसी याद हलके से तड़पा देती है?

मुझे यह हक तो नहीं पूछूं तुमसे सवाल ऐसे
क्या तुम्हे हर एक तब मेरा ख्याल आता है?
कि जब मुझको तुम्हारी याद आये?

मैं कल को न सोचूँ और आज भर जी लूं मैं अगर..
तो मुझे तुमसे बहुत प्यार है, बहुत सारा
जो यह कल होता ही नहीं बीच अपने
मैं तुमसे कह देती, मैं तुमसे कह देती, मैं तुमसे कह देती....

सच?

मेरा मन फट पड़ेगा - उमड़ के दौड़ के जब प्यार मेरी ना सुनगा
मैं कब तक अपने दिल को बहाना दर दूँगी बहाना
यह सच है मैं नहीं चाहती हूँ तुमको
यह भी है सच कि मुझको प्यार तो है

मेरे बचपन के गीतों में तो देखो तुम नहीं हो
अगर यह प्यार है तो इस तरह मुझसे कभी पहले - मिला ही है नहीं यह
वोह सब जिसको मैं प्यार कहती हूँ -
यह वह तो नहीं है

मेरी आँखों में हो फिर भी क्यों तुम चाव्बीसों घंटे ?
यूँ आधा सा समय तो सोच के तुमको - मैं तुम पर और खुद पर - होती हूँ खफा ही
यह सोचा करती हूँ किस किस तरह, सही नहीं हम
मेरी आँखों में हो फिर भी क्यों तुम चाव्बीसों घंटे ?

मुझे ना पता है ना खबर है कि क्या सिला है
किसी ने उड़ के हवा से कुछ भी तो कहा नहीं इस बार...
मैं तुमको कैसे कह दूं, क्या कहूं तुमको बताओ?
यह सच है मैं नहीं चाहती हूँ तुमको
.
.
.
यह भी है सच कि मुझको प्यार तो है!

Loving too much? Part 1

Is there such a thing? Loving too much?
This one is not for anyone in particular, though I know several people who can fight with me over its meaning... all I can say to them is... get rid of your chains, and feel... just feel... be brave and feel...

There is only one person in my life who knew this the way I do... the most beautiful person in my life.. even if the most cruel too... the most beautiful...

प्यार तो बस है वही
ठहराव में भी जो बहे
साँसों में घुलता ख्वाब है
हर सांस में, हर सांस में

यह बदिशें कैसी हैं कि
होगा अगर तो हो होगा यूँ
कि प्यार है तो यह करो, ऐसे करो, ऐसे कहो

आँखें छिपा पाती हैं क्या?
हवाओं में जो बह रहा
उसको रुका पाती हैं क्या?

महसूस करने पर अगर
अपनी ही तुम दीवारों की
सौ बंदिशें रख दोगे तो, फिर प्यार क्या कर पाओगे?
जीना तो सीख लोगे पर
मर के उबर न पाओगे...

तुम सोच लो, तुम हो कहाँ
रुकना कहाँ जाना कहाँ
वो जिसको मुझसे प्यार हो
उसको तो बहना आएगा...

मैं नहीं चाहती की मुझको तुम से प्यार हो

मैं नहीं चाहती की मुझको तुम से प्यार हो
न आज, न कभी और
मैं नहीं चाहती मुझे तुमपर विश्वास हो

मैं चाहती हूँ , मैं ढूँढ पाऊं अपने रास्ते और उनपर कहीं
मुझे वोह मिले जिसकी - तलाश थी हरदम
यूँ तुम मेरे सामने खड़े हो कर
मेरे रास्तों से खेल मत खेलो

कई बार बहुत प्यार करते करते
सब रास्ते बह जाने दिए
कभी सोचा ही नहीं, कि मुझे चाहिए क्या?
कब किसी और का ख्वाब मेरा हो गया...

बस हुए यह भ्रम, यह खेल, यह रिश्ते जहाँ से
कल फिर अधूरी झांकूंगी

मेरे मन में वोह विश्वास नहीं है जो मेरी आँखों में हो शायाद...
मैं यह किवाड़ खोल सकती नहीं
मैं नहीं चाहती की मुझको तुम से प्यार हो
न आज, न कभी और
मैं नहीं चाहती मुझे तुमपर विश्वास हो
मैं नहीं चाहती.. फिर भी..
बह जाने से पहले कि उथल पुथल ... कुछ याद तो है मुझको...