Monday, March 8, 2010

किसी बात पर तेरी कभी

किसी बात पर तेरी कभी
या खुद के ही खयाल पर
मुसकुराती रहती हूँ आजकल
कुछ गुनगुनाती रहती हूँ
जानने वाले कहते हैं यह तो
जाना पहचाना लगता है
जाना पहचाना लगता है...

बहते हुए पानी को कोई कैसे रोक ले
कि बाँध बनाने कभी सीखे नहीं मैंने
कहीं और कर दिया जाए, आज रुख इसका
बहता है तेरी ओर, मगर आज न बहे?
कुदरत का कोई खेल होगा - मान लेती हूँ
हंस के कभी रोक के, यह अहसास होता है
हथयार डल गए हैं, मैं हार गयी हूँ
न जाने क्यों फिर भी खड़ी - मुसकुरा ही रही हूँ...
बहते हुए पानी को कोई कैसे रोक ले?

किसी बात पर तेरी कभी
या खुद के ही खयाल पर
मुसकुराती रहती हूँ आजकल
कुछ गुनगुनाती रहती हूँ
जानने वाले कहते हैं यह तो
जाना पहचाना लगता है
जाना पहचाना लगता है...

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