Monday, March 8, 2010

क्या बात है?

कभी ज़िन्दगी आवाज़ दे
कुछ कहना था तुझे अगर
सब रोक के खड़ी हूँ मैं
अब तू बता, क्या बात है?

तुझसे खफा नहीं हूँ मैं
खुद से खिलाफत है मगर
क्या इससे बहतर कोई कल
होगा कभी, मुझको बता?

एक जेल है मुझमे कहीं
मैं खुद में सब कुछ हूँ मगर
आज़ाद ही बस हूँ नहीं
तू है अगर, आवाज़ दे..

खुद को बुलाता है कोई
और कोई खुद आता नहीं
वह कौन है जो "मैं" है यहाँ?
"मैं" कौन हूँ, जवाब दे?

बीता हुआ परछाई है
परछाइयों की होती नहीं आँखें बस एक
अँधेरा सा चलता है साथ साथ हर एक पल
मैं कहीं इतना ऊपर उड़ के जाना चाहती हूँ
मेरी कोई परछाई दिखे ना कहीं पर भी
और शायद आसमान में कोई घर भी हो मेरा
मैं अपनी आवाजों से हूँ परेशां
कुछ तू बता अब -

क्या बात है?

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