यह कैसा पर्दा पड़ा है मेरी आँखों पर?
तेरी हर ज़िद मेरी सिरआँखों पर
तेरी हर बात का होता है असर
कभी इतना भी की लिखते लिखते
बस तुझे सोच के रुक जाती हूँ...
कितनी बातें अधूरी लगती हैं
कितने जवाब हैं जो दे ही सकती नहीं
कितने सवाल पूछे नहीं जा सकते कभी
कितना कुछ कह भी देना चाहती हूँ
मुझे खुद से लग रहा है डर ...
'मेरी जां' है तो नहीं तू तो फिर कहूं क्यों मैं?
बड़ी जुर्रत है इन शब्दों में, मुझसे लड़ भिड कर
जितना भी रोकूँ, निकल ही आते हैं
क्या पता प्यार से हो प्यार मुझे
क्या पता इसमें तू हो ही न कहीं
तेरी ही आँखें क्यों चुनी इसने?
अपनी हर हद मैं तोडे जाती हूँ ...
डरने लगी हूँ तेरे न होने से
और तुझे कुछ मांगूं, कहूं, हक भी नहीं
अब भी कहती हूँ प्यार नहीं करना तुझसे
क्यों फिर तुझी पे लौट आती हूँ?...
यह कैसा पर्दा पड़ा है मेरी आँखों पर?
यह कैसा पर्दा पड़ा है मेरी आँखों पर?
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