मुझसे लकीर नहीं बन रही
यह क्या जी रही हूँ मैं?
एक ख्याल के सच होने के लिए
लड़ते लड़ते थक गयी थी
सोच रही थी बस अब थकान ही है
लडाई ख़त्म हो चली है
कि मुझमे लड़ने की,
विश्वास करने की, और प्यार..
क्षमता ख़त्म हो चली है
यह कहाँ से आ गए तुम?
मैं परियों में और जादू में विश्वास करती हूँ
महसूस होती है मुझे जमीन, आसमान, हवा, बारिश और धड़कने
गानों में, शब्दों में, और दुनिया बदल जाने में
दुनिया बदल पाने में भी, विश्वास है मुझे
टूटता बिखरता सा दीखता है अभी लेकिन
इस विश्वास को सालों जिया है मैंने
मगर तुम?
आसमान में घुमते किसी गृह से प्यार हो गया है मुझे
और मेरे पास कोई अंतरिक्ष यान नहीं
वैसा वाला तो शायाद बना भी नहीं
क्या करूं मगर?
तुम्हे देखते, महसूस करते, जीते हुए,
मुझे याद ही नहीं रहता की तुम
आसमान में घूमता कोई गृह हो, या उससे भी दूर कोई तारा
और मैं पृथ्वी पर बंधी इंसान भर हूँ
तुम कभी अपना यान लेकर यहाँ पहुंचे भी
तो अनगिनत चहरों में मेरा चहरा पहचानोगे कैसे?
ढूँढोगे कैसे मुझे?
विश्वास?
अब से पहले इतना मुश्किल नहीं था
परियों में और जादू में, जमीन, आसमान, हवा, बारिश और धडकनों में
गानों में, शब्दों में, और दुनिया बदल जाने में
दुनिया बदल पाने में
विश्वास
इतना मुश्किल नहीं था...
मैं जानती हूँ की बस सिर्फ केवल विश्वास की सुनहरा धागा पकड़ कर
तुम मुझ तक पहुच सकते हो
तुम जब आओगे, तुम्हारी नज़रें बस यह एक पतली सी डोर ढूँढ रही होगी
आसमान में खिंची यह एक लकीर
और मुझसे यह लकीर ही नहीं बन रही
और मुझसे यह लकीर ही नहीं बन रही....
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