१४० अक्षरों का रिश्ता..
सोचो अनजाने रिश्ते
अनजान लोगों के बीच बंधे कुछ शब्द
और तरसता हुआ कोई अहसास
अपनेपन की गुंजाईश है भी या नहीं
क्या हम दोस्त हैं?
और नहीं तो क्या अजीब सा है यह, जो भी है?
तुम मुझे दोस्त ही लगते हो
तुम मुझे जानते तक नहीं!
मेरा दिन तुम्हारे लिखे
१४० अक्षर ढूँढता है
नामों की अनगिनत भीड़ मे क्या तुम
पहचानते हो मेरा नाम तक ?
१४० अक्षर...
तम्हारी फ़िक्र होती है
तुम्हारा चहरा पढ़ती हूँ
और तुम्हारे शब्दों में ढूँढती हूँ कभी
तुम्हारे अहसास
वह जो कह रहे हो
और वह, जो नहीं...
कोई ज़रुरत नहीं है मुझे यह करने की
तुम्हारा और मेरा, कुछ नहीं है
१४० अक्षर... रिश्ता नहीं होते
फिर भी
और भले ही यह समय बीत जाए तब भी
मुझे तुम्हारी परवाह है
उसकी नहीं जो शानदार और दुनिया से बड़ा है
तुम्हारी
तुम मुझे दोस्त ही लगते हो
तुम मुझे जानते तक नहीं!...
क्यों?
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