Wednesday, March 24, 2010

After-day-after-day-after-day

Am I leaving the world I know
Am I one with the unknown
Am I lost and if so?
Will I ever be found again?

What happened to that sparkle of light?
What happened to the good fight?
Why does life feel 'day-after-day-after-day'
after-day-after-day-after-day...

There is darkness for all the light
And yet if I tried to sleep
It wouldn't be dark enough somehow
There would be no respite...

Words fail me and all I feel
All I feel is as hollow as words
What will survival mean here?
Who will I become?

Am I leaving the world I know
Am I one with the unknown
Am I lost and if so?
Will I ever be found again?

Why does life feel 'day-after-day-after-day'
after-day-after-day-after-day...

Sunday, March 21, 2010

The same universe

(Somewhere)
It is peaceful.
You and I are a part of the same universe and merge in the same universe
You and I are therefore not separate.
I do not need to reach out to you and you do not need to find me.
We exist in the same being,
take the same breath
breathe the same life.

Somewhere there is the feeling of a twinge,
a sudden sharp pain, except, that it is neither sudden nor sharp.
I acknowledge it, but I cannot assign meaning to it.
I realize it is the pain of stepping 'out'
of the collective consciousness.
It is the pain of 'need' and 'want' and 'do not have'
It is the pain of 'cannot love' or 'cannot be loved' or both

(Inside, it was just love -
You and I were a part of the same universe
and merged in the same universe.)

मुझसे लकीर नहीं बन रही

यह क्या जी रही हूँ मैं?

एक ख्याल के सच होने के लिए
लड़ते लड़ते थक गयी थी
सोच रही थी बस अब थकान ही है
लडाई ख़त्म हो चली है
कि मुझमे लड़ने की,
विश्वास करने की, और प्यार..
क्षमता ख़त्म हो चली है

यह कहाँ से आ गए तुम?

मैं परियों में और जादू में विश्वास करती हूँ
महसूस होती है मुझे जमीन, आसमान, हवा, बारिश और धड़कने
गानों में, शब्दों में, और दुनिया बदल जाने में
दुनिया बदल पाने में भी, विश्वास है मुझे
टूटता बिखरता सा दीखता है अभी लेकिन
इस विश्वास को सालों जिया है मैंने

मगर तुम?

आसमान में घुमते किसी गृह से प्यार हो गया है मुझे
और मेरे पास कोई अंतरिक्ष यान नहीं
वैसा वाला तो शायाद बना भी नहीं
क्या करूं मगर?
तुम्हे देखते, महसूस करते, जीते हुए,
मुझे याद ही नहीं रहता की तुम
आसमान में घूमता कोई गृह हो, या उससे भी दूर कोई तारा
और मैं पृथ्वी पर बंधी इंसान भर हूँ
तुम कभी अपना यान लेकर यहाँ पहुंचे भी
तो अनगिनत चहरों में मेरा चहरा पहचानोगे कैसे?
ढूँढोगे कैसे मुझे?

विश्वास?
अब से पहले इतना मुश्किल नहीं था
परियों में और जादू में, जमीन, आसमान, हवा, बारिश और धडकनों में
गानों में, शब्दों में, और दुनिया बदल जाने में
दुनिया बदल पाने में
विश्वास
इतना मुश्किल नहीं था...

मैं जानती हूँ की बस सिर्फ केवल विश्वास की सुनहरा धागा पकड़ कर
तुम मुझ तक पहुच सकते हो
तुम जब आओगे, तुम्हारी नज़रें बस यह एक पतली सी डोर ढूँढ रही होगी
आसमान में खिंची यह एक लकीर

और मुझसे यह लकीर ही नहीं बन रही
और मुझसे यह लकीर ही नहीं बन रही....

Saturday, March 20, 2010

इंतज़ार

कभी करते हुए इंतज़ार तुम्हारा अगर
मैं थक के बैठ जाऊं कहीं
तुम्हे लगे, अब मैं
तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर रही

कुछ बात न करूं तुमसे,
कुछ न कहने को हो न सुनने को
करोड़ों शब्दों की बकबक के बाद
एक दम ख़ामोशी मिले

अगर तुम्हे लगे - अजीब सा
जैसे कभी वक़्त बीत जाता है

याद करना जनम दर जनम सदी दर सदी
मैं बस प्यार किया है तुमसे, और इंतज़ार
अब आओगे, अब आओगे, अब आओगे...

मेरे शब्द तो कहीं चार जनम पहले ही बीत गए
और कुछ सोल्हा जन्मों से थकी हूँ
पिछले सात जन्मों से हारी हुई हूँ
उनमे से तीन में बडबडाती रही
और चार, चुप पड़ गयी

तुम्हे लग रहा है मुझे इंतज़ार नहीं, प्यार नहीं?
शायद जीता जगता इंसान ही नहीं वहां, जहाँ मैं थी

छुओ उस पत्थर को, थामे रहो थोड़ी सी देर
कुछ गर्मास मिलेगी तो पिघल जायेगा
मैं बस इस उम्मीद पे जिंदा हूँ
तुम आओगे, फिर से जीना भी आ जायेगा |

Thursday, March 18, 2010

ओडोमोस

आधी रात के बाद
कंप्यूटर के आगे बैठ कर सोच रही हूँ
ओडोमोस की ट्यूब क्या हुई?
तलवे के नीचे और कपड़ों के अंदर, घुटनों और
उँगलियों के बीचों बीच
ओडोमोस लगा लेने भर से अक्सर खुजली मिट जाती है
ज़िन्दगी के quick fix solutions में से एक

कुछ और भी ऐसे मरहम चाहिए
कुछ और भी ऐसे मरहम चाहिए..

कहाँ?

अनजानी उमीदों पे खड़ा सफ़र,
खड़ा है रूककर?
या चलता जा रहा है?
मैं कहाँ जा रही हूँ?
या खड़ी हूँ?
कहाँ?

सवाल कुछ ऐसे हैं
क्या मैं पानी पे चल पाउंगी?
क्या गिरते गिरते गिरना भूल कर कभी
उड़ने लग जाउंगी?
क्या तुम्हे मेरा अहसास भर भी है?
हो तो क्या? और न हो तो क्या?
क्या मैं पानी पे चल पाउंगी?
क्या गिरते गिरते गिरना भूल कर कभी
उड़ने लग जाउंगी?

Saturday, March 13, 2010

रेत का दाना

ज़िन्दगी और मौत - कभी सोचो
खाली पलों को
किनारे पे खड़े हो कर देखो
बह रही है नदी..
ज़िन्दगी

कभी खाली पलों में
भरा होता है इतना
कि लगता है भर के लम्हों को कुछ मन
खाली हो
लोगों से भरे कमरे अच्छे लगते हैं - और शांत
और खामोशी का शोर सहा नहीं जाता
ख्यालों कि भीड़ आती है लेकिन
कोई एक जो बात करे खुद से
बस वह ख्याल नहीं आता

हमेशा बह के पहुँचो या तैर के,
यह ज़रूरी नहीं है
कभी किनारों पे खड़े होकर
एक टक एक जगह
ज़िन्दगी
बह रही है

तुम्हे तो पता है यह
सांस लो
खुशबू है
आँखें बंद करो
रेत का हर दाना छूने लायक है, जीने लायक है...
क्या पता वह खाली या भरा लम्हा जो आज समझ नहीं आ रहा
कल याद आये...