Monday, March 8, 2010

तुमको लिखी एक और चिठ्ठी - 1

तुम्हे समझ आता तो तुम बता दो
क्या करूं मैं
सांस, ऊपर की ऊपर है, नीचे की नीचे
तुम्हे कुछ कह नहीं सकती कि आखिर
तुम्हे तो प्यार नहीं है ...

लगता है अब बात होगी तुमसे तो रो पडूँगी
मन गले तक भर आया है
क्यों तुम्हारे पास नहीं हो सकती हूँ?
क्यों साथ नहीं हो सकती?
कब पिछली बार हुआ था ये,
अब याद भी नहीं मुझे
हुआ करता था, पता है लेकिन....
और शायद यह भी बीत जायेगा...
लेकिन अभी तो लगता है, जो कुछ है, हमेशा सा है
और चाहती भी नहीं, कि बीत जाये यह..
मैं जानती हूँ शायाद गलत हूँ मैं... लेकिन शायद, नहीं भी तो ?

कोई किसी को बंदिशों में नहीं बाँध सकता
तुम मुझसे पूछोगे, क्या रोज़ सुबह एक बार बात करूं तो तुम्हारा दिन बहतर बीतेगा?
नहीं मेरी जान, तब बहतर बीतेगा जब तुम्हारी आवाज़ में भी उतना ही इंतज़ार हो, जितना की मेरी
प्यार अहसानों तले दब जाता है और दोस्ती भी
मैं तुमपर बंदिशे नहीं डाल सकती
लेकिन मैं यह रोक भी नहीं सकती जो हो रहा है
यह दर्द, यह भरापन... यह अपनापन..

बस उम्मीद कर सकती हूँ कि तुम इसको झेल पाओ अगर, जी न पाओ तो
कि कहीं दूर न चले जाओ... पास न भी आओ तो
मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है
न होगी इन वजहों से कभी - शिकायत भी हक मांगती है मेरी जान
मुझे तो यह हक भी नहीं
की मुह उठा के तुम तक, पहुँच ही जाऊं...
तुम्हारे सिरहाने बैठी रहूँ...कोई किताब ही पढ़ते भले...
मेरे पास होने से तुम्हे नर्मास मिले...

तुम्हे समझ आता तो तुम बता दो
क्या करूं मैं?

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