Thursday, March 4, 2010

ज़मीन पे आने में बहुत देर नहीं लगती, है न?

ज़मीन पे आने में बहुत देर नहीं लगती, है न?
आपको पता भी होता है मगर फिर भी
इतने करीब है ज़मीन पता नहीं चलता

और उड़े जाते हो, बहते जाते हो, अनगिनत आसमानों में
बे-मंजिल, बे-रास्ता, इसलिए कि कुछ हुआ महसूस ऐसा
जिसको महसूस भर करने को - आत्मा तक तड़प रहे थे ....

कोई उबाल जो आपको गर्मी दे जाता है
था भीतर यह पता था, क्योंकि जानते हो खुद को
यह भी पता था कि बर्फ जमी है भीतर
और फिर पिघले ज़रा तो रो ही पड़े

वोह सर के कोने में बैठा आज सुबह ही तो समझा रहा था
और अब सहला रहा है ... कोई बात नहीं... पता तो था..
अभी कुछ एक दिन पहले ही तो ज़मीन के इतने पास थी तू
दो दिन कि आदत है, बीत जायेगी
... अभी अभी लगी है चोट तो दर्द ज्यादा है
यह घाव भी भर ही जायेगा...
जीने दे खुद को, जीने दे...
थोडा सा रो ले शायद बहतर लगे...

यह समय भी बीत जायेगा
यह समय भी बीत जायेगा.

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