Wednesday, March 3, 2010

मैं सच में लौट आना चाहती हूँ

ऐ सपने मेरे देखो खिलवाड़ कर रहा है सच मुझसे
मुझे आ के बचा लो, उबारो इससे तुम

मेरी ज़मीन मेरे आस्मा को खो देगा
अल्हड है, मन न मेरा समझेगा
और फिर भाषाएँ इसकी मेरी इतनी अलग हैं
कोई कैसे किसी की बात को फिर जानेगा?
हम अपने ही मतलब निकाले जायेंगे
कुछ एक पल मैं प्यार दूभर सा हो जायेगा
जब सारी कोशिशों पे शक की लगेगी मोहर
और थके इतने होंगे, लड़ न पाएंगे

मैं तो पंछी हूँ, सारा ही आसमान मेरा है
मेरे रिश्ते मेरी जड़े हैं, इनका क्या होगा?
कोई एक घर बनाने की खातिर
क्या एक और घर तोड़ देता है?
मेरे भीतर ही तो हैं दोनों घर - एक से गुज़रता है रास्ता दुसरे घर का
यह अलग हैं ही नहीं, मेरे भीतर - वो कहीं इनको अलग कर देगा?

मैं बंटी बंटी सी जी सकती नहीं
क्यों मुझे खींचता ही जाता है?
मेरे सपने बताओ सच को मेरे..
प्यार करना कहीं पे आता है?

मेरा दिल सौ सवाल करता है
चाहता है की बढ़ के छू ले उसे
वहां जहाँ की दर्द ज्यादा हो
वहीँ कहीं पे कुछ नरमाई मिले
मेरा दिल यह भी तो चाहता है मगर
किसी की बाँहों मैं सो जाए फिर
मेरे अन्दर है कुछ जो कहता है
वो मुझे छू ही नहीं पायेगा...

फिर भी कुछ तो है जो छूता है मुझे
और मैं उससे डरती जाती हूँ
मेरे सपने उबारो मुझको तुम
मैं सच में लौट आना चाहती हूँ
मैं सच में लौट आना चाहती हूँ ...

0 comments: