Saturday, March 6, 2010

यहीं..

सुबह उठी तो तुमसे दूर थी
फिर समझ आया कि एक सपना सा देख उठी हूँ..

मैं एक दोस्त से तुम्हारी ही बात कर रही थी...
तुम आये, मेरी आँखों में देखा,
और इससे भी पहले कि मैं कुछ कहती, पूछती, पढ़ ही पाती कुछ
मेरे पास आकर, तुमने मेरा हाथ अपने हाथों में यूँ लिया
कि किसी सवाल या जवाब की गुंजाईश ही ना हो
शायद मेरी आँखों में आँसू आ गए थे तब
शायद तुम्हारी आँखों में भी कोई दर्द था अपना
मैं तुमसे मिलके धीरे धीरे से, कुछ रोने लगी थी
मुझे अहसास है मैं जो रो भी रही थी
वो बस मेरे नहीं थे आँसू - तुम्हारा दर्द भी थे वो
तुमने मुझे थामा था या कि मैंने तुमको
इसका जवाब ना ढूँढना था, ना ही था कोई...
बहुत देर यूँही बैठे रहे हम...
(पता नहीं उस दोस्त का क्या हुआ जिससे मैं बात कर रही थी!!)

फिर ना जाने क्या हुआ... मेरा अगला अहसास यह था
कि तुम कहीं चले गए हो और मैं सोच रही हूँ, क्यों?
जैसे फिर अपने भीतर घुस जाना चाहते हो
अपने आप को, यह जीने नहीं दे सकते तुम
बंद कर दिए हैं सब दरवाज़े...

और तब कभी उठी थी मैं
तुम से दूर...

मैं यहीं खड़ी हूँ, अपने आधे अधूरे प्यार को लेके
तुम्हारे पास ना सही, तुमसे दूर ही सही...यहीं..

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