Thursday, March 4, 2010

मैं चाहती हूँ मेरा हाथ पकड़ के बैठा रहे थोडी देर आज

अभी कुछी दिनों पहले तो अकेली थी
इधर उधर किसी से भी बात कर के, या फिर खुद से ही
मन कुछ हल्का भी हो जाता था
नहीं भी होता था तो पता था मुझे
जो भी है, मैं हूँ, बस मैं हूँ और है ही क्या
जो जैसे बीतेगा, बीत ही जायेगा..

और अब... पता नहीं दर्द का दर्द ज्यादा है
या तुझे न बता पाने का,
मैं चाहती हूँ मेरा हाथ पकड़ के बैठा रहे थोडी देर आज
मैं चाहती हूँ मेरा हाथ पकड़ के बैठा रहे थोडी देर आज..

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